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________________ तत्त्वानुशासन ४५ द्वारा आत्मा में करने पर आत्मस्वभाव में स्थित होने पर परीषह और उपसर्गों के आने पर भी उनका ज्ञान नहीं होता'। यही कर्मकारक और अधिकरणकारक की अभेद विवक्षा है। सन्तानतिनी स्थिर बुद्धि ध्यान इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिर्या स्यात्संतानवर्तिनी । ज्ञानांतरापरामृष्टा सा ध्यातिानमीरिता ॥ ७२ ॥ अर्थ-अभीष्ट ध्यान करने योग्य पदार्थ में जो अन्य ज्ञान को परामर्श न करने वाली सन्तानतिनी अर्थात् अनेक क्षणों तक रहने वाली स्थिर बुद्धि है, वह ध्याति अथवा ध्यान कही गई है ।। ७२ ।। विशेष-समस्त आत्मिक शक्तियों का पूर्ण विकास करने वाली क्रियाएँ, सभी आत्मविकासोन्मखो चेष्टाएँ ध्यान से हो सिद्ध होती हैं अतएव ध्यान पर आचार्यों ने विशेष और विविध दृष्टिकोण से विचार किया है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है "चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्" ।। -स० सि० ९/२० अर्थात् चित्तविक्षेप के त्याग अथवा एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। अनगारधर्मामृत में कहा है कि इष्टानिष्ट बुद्धि के हेतु मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है, उसी चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। ध्यान में द्रव्य पर्याय या किसी भी एक पदार्थ को प्रधान करके चिन्तन किया जाता है और चित्त को अन्य विषयों में जाने से निरुद्ध कर दिया जाता है। यही ध्यान की सरल परिभाषा है, जो सभी ध्यानों के साथ संगति करती है। षटकारकमयो आत्मा का नाम ही ध्यान है एकं च कर्ता करणं कर्माधिकरणं फलं । ध्यानमेवेदमखिलं निरुक्तं निश्चयान्नयात् ॥ ७३ ॥ स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यतः । षटकारकमयस्तस्माद्धयानमात्मैव निश्चयात् ॥ ७४ ॥ अर्थ-ज्यादा कहाँ तक कहें, निश्चयनय से देखा जाय तो एक जो ध्यान है, वहो कर्ता है, कर्म है, करण है, अधिकरण है और फल है। ऐसा क्यों माना गया है, इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं, कि निश्चयनय की अपेक्षा इस आत्मा के द्वारा (कर्ता, करण ) स्वयं के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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