________________
तत्त्वानुशासन
३९ अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्म्यध्यान कहा गया है।
(ज्ञा० सा० १७) धर्म्यध्यान का चतुर्थ लक्षण यस्तूत्तमक्षमादिः स्याद्धर्मो दशतया परः।
ततोऽनपेतं यद्ध्यानं तद्वा धर्म्यमितीरितम् ॥ ५५ ॥ अर्थ-अथवा उत्तम क्षमा आदि जो दश प्रकार का धर्म कहा गया है, उससे सम्पन्न होनेवाला जो ध्यान है, वह धर्म्यध्यान कहा गया है ।। ५५ ॥
विशेष-कार्तिकेयानुप्रेक्षा में धर्म को विभिन्न प्रचलित परिभाषाओं का समन्वय करते हुए प्रधानतया चार परिभाषायें दी हैं
"धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो॥"
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८ इन चतुर्विध परिभाषाओं में क्षमादि दस प्रकार के भावों को भी धर्म कहा गया है। ध्यानशतक में 'उत्तमो वा तितिक्षादिर्वस्तुरूपस्तथापरः।' कह कर प्रकारान्तर से उत्तम क्षमा आदि को धर्म कहा है। यहाँ पर उत्तम क्षमादि दस प्रकार के धर्म से सम्पन्न ध्यान को धर्म्यध्यान कहा गया है ।
ध्यान संवर व निर्जरा का हेतु एकाग्रचिन्तारोधो यः परिस्पन्देन वजितः ।
तद्ध्यानं निर्जराहेतुः संवरस्य च कारणम् ॥ ५६ ॥ अर्थ-परिस्पन्द (चंचलता) से रहित जो एक पदार्थ की ओर चित्त वृत्ति को, अन्य पदार्थों से हटा कर, लगाये रखना सो ध्यान है। वह ध्यान कर्म निर्जरा व कर्मों के आगमन के रोकने के लिए कारण है ।। ५६ ।।
विशेष ध्यान में मन, वचन, काय निष्कम्प हो जाते हैं। योग की निष्कम्पता से कर्मों का आस्रव एवं बन्ध बिल्कुल नहीं होता है और पूर्वबद्ध कर्मों की अविपाक निर्जरा हो जाती है। यद्यपि पूर्ण संवर एवं निर्जरा तो चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान में होती है तथा वहाँ आत्मा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org