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________________ २५ तत्त्वानुशासन सदृष्टिज्ञानचारित्रत्रयं यः सेवते कृती। रसायनमिवातक्यं सोऽमृतं पदमश्नुते ।।' -महापुराण ११/५९ निश्चय मोक्षमार्ग निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिरेभिर्यः समाहितो भिक्षुः । नोपादत्ते किंचिन्न च मुञ्चति मोक्षहेतुरसौ ॥ ३१ ॥ अर्थ-सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों समाहित जो साधु न कुछ ग्रहण करता है और न कुछ त्यागता है, निश्चयनय के अनुसार यह मोक्ष का कारण है ।। ३१ ।। विशेष-(१) तात्पर्य यह है कि आत्मा में लीनता ही निश्चयनय के अनुसार मुक्ति का कारण है। परमाणु मात्र भी परद्रव्य जीव का नहीं है। इसलिये यथार्थ दृष्टि में जोव न तो कुछ ग्रहण करता है और न कुछ त्यागता है । समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी । णवि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥ ३८ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र को धारण करने वाले साधुओं के लिए शुद्धनय की दृष्टि से ग्रहण या त्याग घटित ही नहीं होता है । अतः उनकी दृष्टि से तो आत्मलीनता हो मोक्ष का कारण है त्यागादाने बहिर्मढ़ः करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नान्तर्बहिरूपादानं त्यागो निष्ठितात्मनः ।। मूढ़ बहिरात्मा द्वेष के उदय से बाह्य अनिष्ट पदार्थों का त्याग करता है और राग के उदय से बाह्य इष्ट पदार्थों का ग्रहण करता है तथा आत्मस्वरूप को जानने वाला अन्तरात्मा अन्तरंग राग-द्वेष आदिक का त्याग करता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि निज भावों का ग्रहण करता है और अपने शद्ध स्वरूप में स्थित जो कृतकृत्य सर्वज्ञ परमात्मा है वह न बाह्य आभ्यंतर का त्याग करता है और न किसो का ग्रहण करता है यही निश्चय मोक्षमार्ग है। यही साध्य है। यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्यात्मा। दृगवगमचरणरूपरसनिश्चयान्मुक्तिहेतुरिति जिनोक्तिः ॥३२॥ अर्थ- 'जो आत्मा, स्वयं में स्वयं का स्वयं अवलोकन करती है स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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