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________________ तत्त्वानुशासन २३ जो आत्मा रत्नत्रय द्वारा समाहित होता हआ, निजात्मा में एकाग्र हुआ अन्य कुछ भी न करता है, न छोड़ता है, अर्थात् करने और छोड़ने के विकल्प से दूर हो गया है वही आत्मा निश्वयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है। ___ "निश्चय साध्य है और व्यवहार साधन है।" जैसे कोई धनार्थी पूरुष राजा को जानकर श्रद्धा करता है, और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है वैसे ही मोक्ष के इच्छुक पुरुष को जीवरूपी राजा को जानना चाहिये और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिये, और पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिये और अनुभव द्वारा उसमें लय हो जाना चाहिये। आचार्यों ने निश्चय मोक्षमार्ग के साधन रूप से व्यवहार मोक्षमार्ग का कथन पूनः-पुनः किया है। स्व और पर कारण रूप पर्यायाश्रित तथा साध्यसाधन भेदभाव को लिये हए व्यवहारनय है। जैसे स्वर्णपाषाण प्रदीप्त अग्नि के संयोग से शुद्ध स्वर्ण हो जाता है वैसे ही यह व्यवहार मोक्षमार्ग अन्तर्दृष्टि वाले जोव को ऊपर-ऊपर की परम रमणीक शुद्ध भूमिकाओं में विश्रान्ति को निष्पत्ति करता हुआ स्वयं सिद्ध स्वभावरूप से परिणमन करते हुए निश्चय मोक्षमार्ग का साधन होता है । निश्चयनय व व्यवहारनय अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नयः । व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः ॥ २९ ॥ अर्थ-कर्ता, कर्म आदि विषय जिसमें अभिन्न वणित हों वह निश्चयनय है और जिसमें कर्ता, कर्म आदि भिन्न कथित हों वह व्यवहारनय है ।। २९ ।। विशेष-(१) निश्चय कर्ता, कर्म आदि को अभिन्नता का कथन करता है जबकि व्यवहार भिन्नता का। यहाँ पर निश्चयनय एवं व्यवहारनय का प्रयोग निश्चय मोक्षमार्ग एवं व्यवहार मोक्षमार्ग के लिए किया गया है। (२) तत्त्वानुशासन के इस श्लोक का ध्यानस्तव के निम्नांकित ७१३ श्लोक पर अत्यन्त प्रभाव है। दोनों में ही निश्चय और व्यवहारनयों का स्वरूप समान रूप से कहा गया है । ध्यानस्तव में कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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