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________________ तत्त्वानुशासन अर्थ-इसीलिए पुरुषार्थों में मोक्ष उत्तम पुरुषार्थ कहा जाता है और वह स्याद्वादियों ( जैन दार्शनिकों ) के ही हैं, आत्मा से विद्वेष करने वाले अन्य लोगों के नहीं है ॥ २४७ ॥ एकांतवादियों के बंध और मोक्ष नहीं यद्वा बन्धश्च मोक्षश्च तद्हेतू च चतुष्टयम् । नास्त्येवैकान्तरक्तानां तद्व्यापकमनिच्छताम् ॥२४८॥ अर्थ-अथवा बन्ध और मोक्ष तथा उनके कारण ये चार एकान्तवाद में आसक्त एवं उनको व्यापक नहीं मानने वाले लोगों के नहीं हैं ॥२४८।। विशेष-एकान्तवादियों ने सर्वथा शब्द का प्रयोग कर बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था का ही लोप कर दिया है यह बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था वीतरागी जिनशासन के अलावा अन्यों में देखने को नहीं मिलती। इसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र ग्रन्थ में लिखा है कि बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू, बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः। स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं, नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥ ४ ॥ -स्वयम्भूस्तोत्र स्तवन हे संभव जिन ! बन्ध, मोक्ष तथा बन्ध मोक्ष के हेतू और बद्ध आत्मा, मुक्त आत्मा और मुक्ति का फल यह सब अनेकान्तमत से निरूपण करने वाले आपके ही मत में ठीक होता है। एकान्तदृष्टि रखनेवाले बौद्ध आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानते हैं इसलिए उनके यहाँ बन्ध किसी का होता है, तो मोक्ष किसी दूसरे का होता है। सांख्य मत वाले आत्मा का सर्वथा नित्य मानते हैं अतः उनके मतानुसार जो आत्मा बद्ध है वह बद्ध ही है और जो मुक्त है वह मुक्त ही है अतः एकान्तवादियों के यहाँ बन्ध मोक्ष की व्यवस्था ठीक नहीं बैठती है। इसलिये हे स्वामिन् ! सच्चे उपदेष्टा आप ही हैं। अनेकान्तात्मकत्वेन व्याप्तावत्र क्रमाक्रमौ । ताभ्यामर्थक्रिया व्याप्ता तयास्तित्वं चतुष्टये ॥२४९॥ अर्थ-बात यह है कि अनेकान्तात्मकत्व के साथ क्रम और अक्रम (योगपद्य) व्याप्त है, क्रम अक्रम से अर्थक्रिया व्याप्त है और अर्थ क्रिया से अस्तित्व व्याप्त है । अर्थात् अस्तित्व (सत्ता) वहीं रह सकता है जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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