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________________ १३८ तत्त्वानुशासन विशेष-'सकल ज्ञ यज्ञायक सदपि निजानन्द रसलीन' जीवादि द्रव्यों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें वर्तमान पर्यायों की तरह अथवा हस्तामलकवत् जानते हुए भी त्रिकालदर्शी अरहंतदेव स्व-स्वरूप में लीन रहते हैं । जैसा कि कहा है स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः। प्रबुद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पादाय पायात्पुरुषः पुराण ॥ १॥ प्रश्न उठता है कि जो आत्मस्वरूप में स्थित होगा वह सर्वव्यापक कैसे ? समाधान यह है कि पुराणपुरुष आत्मप्रदेशों की अपेक्षा अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, पर उनका ज्ञान सब लोकालोक के पदार्थों को जानता है, अतः वे सर्वगत हैं । सिद्धों को अनन्तसुख अनन्तज्ञानदृग्वीर्यवैतृष्ण्यमयमव्ययम् सुखं चानुमेवत्येष तत्रातीन्द्रियमच्युतः ॥२३९॥ अर्थ-यहाँ यह अविनाशी मुक्तात्मा अतीन्द्रिय, अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तवीर्यमय, तृष्णाहीन और अविनाशी सुख का अनुभव करता है ॥ २३९ ॥ विशेष--सिद्धों का सुख-चक्रवतियों के सुख से भोगभूमियों जीवों का सुख अनन्तगुणा अधिक होता है । इनसे धरणेन्द्र का सुख अनन्तगुणा है, इनसे देवेन्द्र का सुख अनन्तगुणा है उस देवेन्द्र से भी अहमिन्द्र का सुख अनन्तगुणा है । इन सभी के अनन्तानन्त गुणित अतीतकाल, भविष्यत्काल वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी सुखों को भी एकत्रित कर लीजिये और सबको मिला दीजिये। तीन लोक से भी अधिक ढेर के समान इनसम्पूर्ण सुखों की अपेक्षा मी अनन्तान्त गुणा अधिक सुख सिद्ध भगवान् को एक क्षण में उस मुक्तिकान्ता के समागम से प्राप्त होता है। सिद्धसुख विषय एक शंका ननु चाक्षैस्तदर्थानामनुभोक्तुः सुखं भवेत् । अतीन्द्रियेषु मुक्तेषु मोक्षं तत्कीदृशं सुखम् ॥२४०॥ अर्थ--यहाँ शंका होती है कि (संसार में) इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयों का अनुभव करने वाले को सुख हो सकता है। अतीन्द्रिय मुक्त जीवों में मोक्ष में वह सुख कैसे हो सकता है ? ।। २४० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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