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तत्त्वानुशासन
१२९ मण्डल, धारण, कर्म के अधिष्ठाता देवों के संस्थान, लिङ्ग (चिह्न), आसन, प्रमाण, वाहन, वीर्य, जाति, नाम, द्युति, दिशा, भुजाओं की संख्या, मुखों की संख्या, नेत्रों की संख्या, क्रू रभाव, शान्त भाव, वर्ण, स्पर्श, स्वर, अवस्था, वस्त्र, आभूषण, आयुध आदि तथा शान्त और कर कर्म के लिए जो अन्य मन्त्रवाद आदि ग्रन्थों में कहा गया है, वह सब ध्यान का सामग्रीसमूह है ॥२१३-२१६॥
यदात्रिकं फलं किञ्चित्फलमामुत्रिकं च यत् । एतस्य द्वितयस्यापि ध्यानमेवाग्रकारणम् ॥२१७॥ अर्थ-जो कुछ इस लोक का और जो परलोक का फल है, इन दोनों का ध्यान ही प्रधान कारण है ॥२१७।।
ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः ॥२१८॥ अर्थ-तथा ध्यान के ये चार मुख्य कारण हैं-गुरु का उपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और स्थिर मन ।।२१८॥
अत्रैव माग्रहं कार्पुर्यध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यानमाहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ॥२१९॥ अर्थ-जो ध्यान का ऐहिक ( इस लोक विषयक ) फल है, इसी में आग्रह नहीं करना चाहिये। क्योंकि यह तो ध्यान की महत्ता को बताने के लिए प्रदर्शित किया गया है ॥२१९॥
यद्ध्यानं रौद्रमात्तं वा यदैहिकफलार्थिनाम् ।
तस्मादेतत्परित्यज्य धयं शुक्लमुपास्यताम् ॥२२०॥
अर्थ-ऐहिक-इस लोक सम्बन्धी फल की इच्छा वालों का जो ध्यान होता है, वह रौद्र अथवा आर्तध्यान होता है। इसलिए इनका त्याग करके धर्म्य और शुक्ल ध्यान की उपासना करना चाहिये ।।२२०।।
विशेष-ध्यान सामान्यतया ४ प्रकार के हैं-"आर्तरौद्रधर्म्यशुकलानि' ( तत्त्वार्थसूत्र ९।२८) आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के तथा धर्म्य और शुक्ल ये दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं । विशेष रूप से आर्तध्यान को तिर्यञ्चगति का, रौद्र ध्यान
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