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________________ तत्त्वानुशासन १२५. ततोऽयमहत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा । भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने को नाम विभ्रमः॥१९३॥ अर्थ-तब भव्य प्राणियों में यह भविष्यत्कालीन अर्हन्त की पर्याय द्रव्यनिक्षेप से सदा विद्यमान रहती है, इसलिए सज्जन व्यक्ति को इस आत्मा के ध्यान में भ्रान्ति कैसे हो सकती हे ? ॥ १९३ ॥ विशेष—अतः अर्हन्त पर्याय जो कि पर्यायदृष्टि से भावी है, परन्तु द्रव्य दृष्टि से भव्य प्राणी में सदा ही पायी जाती है ऐसा होने से आत्मा को अर्हन्त रूप ध्याने विभ्रम कैसा ? यह तो एक प्रकार से अर्हन्त का ही अर्हन्त रूप से ध्यान करने जैसा है । किञ्च भ्रान्तं यदीदं स्यात्तदा नातः फलोदयः । न हि मिथ्याजलाज्जातु विच्छित्तिर्जायते तृषः ॥१९४॥ प्रादुर्भवन्ति चामुष्मात्फलानि ध्यानवर्तिनाम् । धारणावशतः शान्तररूपाण्यनेकधा ॥१९५॥ अर्थ-यदि इस ध्यान को भ्रान्त या भ्रमयुक्त माना जाये तो इस ध्यान से फल की प्राप्ति नहीं होना चाहिये। क्योंकि झूठे (असत्य) पानी से कभी भी प्यास की शान्ति नहीं होती है । जब कि ध्यान करने वाले योगियों को धारणा के अनुसार इस ध्यान से शान्त और क्रूर रूप वाले अनेक प्रकार के फल प्रकट होते हैं इसलिये आत्मा का अर्हन्त रूप से ध्यान करना भ्रांति रूप नहीं है ।। १९४-१९५ ।। ध्यान का फल गुरूपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितैः । अनन्तशक्तिरात्मायं मुक्ति भुक्ति च यच्छति ॥१९६॥ अर्थ- गुरु के उपदेश को पाकर शान्त चित्त से ध्यान करता हुआ अनन्त शक्ति वाला यह आत्मा मुक्ति और भुक्ति को प्राप्त होता ध्यातोहत्सिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये । तद्ध्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ॥१९७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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