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________________ - १२ - वास्तविक सत्ता तथा हेय-उपादेय तत्त्व बतलाये हैं। बंध और उसके कारणों को हेय तथा मोक्ष एवं उसके कारणों को उपादेय तत्त्व बतलाने के बाद हेय रूप मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जो कि बंध के कारण हैंइनका भेद-प्रभेद सहित प्रतिपादन किया गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति की प्रमुख पात्रता है अहंकार, ममकार का विसर्जन । जबतक ये दोष हैं व्यक्ति अपने आपको कितना ही ऊँचा मानता-समझता हो, उसने इस क्षेत्र की प्रारम्भिक भमिका में भी कदम नहीं रखा है। अतः प्रत्येक साधक को सर्वप्रथम इन दोषों को पहचानकर इनका त्याग अवश्य करना चाहिए। इसीलिए ग्रन्थकार ने हेय-उपादेय तत्त्व प्रतिपादन के बाद सर्वप्रथम ममकार और अहंकार के लक्षण उदाहरण सहित बतलाये हैं। पूज्यनीया अर्यिका १०५ स्याद्वादमती माताजी ने इन्हीं लक्षण प्रसंगों में तथा अन्य अनेक स्थलों में छहढाला और बृहद्रव्यसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थों के तद्विषयक उद्धरण देकर इन विषयों का और भो अच्छा प्रतिपादन किया है। प्रत्येक साधक की साधना का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति होता है । जैनधर्म में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है । ग्रन्थकार ने इनका स्वरूप प्रतिपादन करने के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय पर आते हुए कहा है स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि । तस्मादभ्यस्यन्तु ध्यानं सुधियः सदाऽप्यपास्याऽऽलस्यम् ।। ३३ ।। अर्थात् 'चूंकि निश्चय और व्यवहार रूप दोनों प्रकार का निर्दोष मक्ति हेतु मोक्षमार्ग ध्यान की साधना में प्राप्त होता है। अतः हे सुधीजनो! आलस्य का त्याग करके सतत् ध्यान का अभ्यास करो। ध्यान के चार भेदों में ग्रन्थकार ने आर्त्त और रौद्र ध्यान को दुर्ध्यान एवं त्याज्य तथा धर्म्य एवं शुक्लध्यान को सद्ध्यान तथा इन्हें उपादेय बतलाते हुए इनका विस्तृत प्रतिपादन किया है। ___ वंदिक परम्परा में प्रसिद्ध महर्षि पतञ्जलि के योग-दर्शन में वर्णित यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिरूप अष्टाङ्गयोग सम्बन्धी मान्यता से हटकर तत्त्वानुशासनकार ने अष्टाङ्गयोग की नवीन परम्परा का सूत्रपात करके योग साधना के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अष्टांगयोग इस तरह बतलाये गये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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