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________________ तत्त्वानुशासन १११ अर्थ-जिसने पहले जाना था, जो आगे भविष्य में जानेगा तथा वर्तमान में चिंतन करने योग्य है ऐसा मैं चिद् द्रव्य हूँ॥ १५६ ॥ विशेष-केवलणाण सहावो केवलदसणसहाव सुहमइओ। केवलसत्ति सहावो सोऽहं इदि चिंतये णाणी ॥ ९६ ।। -नियमसार जो कोई केवलज्ञान स्वभाव है, केवलदर्शन स्वभाव है, परम सुखमय और केवलशक्ति अर्थात् अनन्तवीर्य स्वभाव है, वह मैं हूँ ऐसा ज्ञानी ध्याता आत्म भावना करे । णियभावं ण वि मुच्चइ परभावं व गेण्हए केई । जाणदि पस्सदि सव्वं सोऽहं इदि चितए णाणी ।। ९७ ॥ -नियमसार जो आत्मभाव को कभी नहीं छोड़ता और परभाव को कभी भी ग्रहण नहीं करता, परन्तु सबको जानता देखता है वह मैं हूँ ऐसा विचार ज्ञानो ध्याता को करना चाहिये । स्वयमिष्टं न च द्विष्टं किन्नूपेक्ष्यमिदं जगत् । नोऽहमेष्टा न च द्वेष्टा किन्तु स्वयमुपेक्षिता ॥ १५७ ॥ अर्थ-यह संसार अपने आप न तो इष्ट है और न ही अनिष्ट है अपितु उदासोन रूप है मैं न तो राग करने वाला हूँ और न ही द्वेष करने वाला हूँ किन्तु उपेक्षा करने वाला अर्थात् उदासीन रूप हूँ॥ १५७ ।। मत्तः कायादयो भिन्नास्तेभ्योऽहमपि तत्त्वतः । नाहमेषां किमप्यस्मि ममाप्यते न किञ्चन ॥ १५८ ॥ अर्थ-शरोर आदि मुझ से भिन्न हैं और वास्तव में मैं भी उनसे भिन्न हूँ। मैं इनका कुछ भी नहीं हूँ और ये मेरे भी कोई नहीं हैं ॥१५८॥ विशेष-ध्यान करने वाले को चाहिये कि पहले वह निर्विकल्प होने के लिए शरार, पुत्र, मित्र, शिष्य, देश, ग्राम, मन्दिर, तीर्थ आदि पदार्थों को आत्मा से सर्वथा भिन्न माने तथा स्वयं को उनका या उन्हें अपना मानना छोड़े। एवं सम्यग्विनिश्चित्य स्वात्मानं भिन्नमन्यतः। विधाय तन्मयं भावं न किञ्चिदपि चिन्तये ॥ १५९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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