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मनीषियों के महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्व आज भी उनका उद्देश्य स्वानुभव द्वारा उपार्जित ज्ञान का माध्यम से अपनी भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने आत्मपरिचय देना, किन्तु उनकी इसी उच्च प्रवृत्ति ने शाली इतिहास क्रमबद्ध लिखने में कठिनाई उत्पन्न कर दी है ।
आचार्य जुगल किशोर जी मुख्तार ने इस ग्रन्थ को अपनी विस्तृत प्रस्तावना में काफी विचार-विमर्श करके इसे रामसेनाचार्य की रचना सिद्ध किया तथा नागसेनाचार्य को इनका दीक्षागुरु माना । किन्तु कुछ पाण्डुलिपियों के आधार पर कुछ विद्वानों ने इसे नागसेनाचार्य की कृति माना । इसकी रचनाकाल ११वीं शती का उत्तरार्ध से लेकर १२वीं शती के पूर्वार्द्ध तक में कोई मतभेद नहीं है ।
अज्ञात ही हैं क्योंकि प्रकाश साहित्य के का रहा है, न कि हमें अपना गौरव -
तत्त्वानुशासन के इस नवीन संस्करण के अनुवादक विद्वान् ने भी इसे नागसेनाचार्य की कृति माना है । जो भी हो मतभेद अपनी जगह हैं किन्तु इस ग्रन्थरत्न की श्रेष्ठता के विषय में सभी एकमत हैं । पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इस ग्रन्थ की सरल, प्रांजल और सहज बोधगम्य भाषा और विषय प्रतिपादन की कुशलता की प्रशंसा करते हुए अपनी प्रस्तावना में लिखा है कि इसके अध्ययन से ऐसा मालूम होता है कि इसमें शब्द ही नहीं बोल रहे, शब्दों के भीतर ग्रन्थकार का हृदय ( आत्मा ) बोल रहा है और वह प्रतिपाद्य विषय में उनकी स्वतः की अनुभूति को सूचित करता है । स्वानुभूति से अनुप्राणित हुई उनकी काव्यशक्ति चमक उठी है और युक्ति पुरस्सर प्रतिपादन शैली को चार चाँद लग गए हैं । इसी से यह ग्रन्थ अपने विषय की एक बड़ी ही सुन्दर व्यवस्थित कृति बन गया है । इसे कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है । डॉ० मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है कि यह ग्रंथ रत्न अपने विषय का एक अद्वितीय प्रतिपादन है । और निश्चय ही यह अत्यन्त सरल भाषा में लिखा गया है । 3 अनेक परवर्ती आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में तत्त्वानुशासन का अनुकरण किया है तथा इनके पद्यों को उद्धृत भी किया। पं० आशाधरजी ने तो भगवती
१. तत्त्वानुशासन नामक ध्यानशास्त्र : सम्पादक एवं भाष्यकार पं० जुगलकिशोर मुख्तार “युगवीर” |
२. तत्त्वानुशासन रामसेनाचार्य प्रणीत, सम्पादक - भाष्यकार - पं० जुगलकिशोर । ३. वही प्रस्तावना पृ० ११ ।
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