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________________ -२. १८९) सिद्धान्तसारः (४३ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः प्रकीर्तितः । ज्ञानाराधनतन्निष्ठेराराध्यैस्तस्य लब्धये ॥१८२ क्षयादुपशमाज्जातः कर्मणामात्मनो महान् । यः प्रसादो विशुद्धिः सा कथिता' शुद्धमानसः॥१८३ द्रव्यतः क्षेत्रतः कालात् भावतस्तु चतुर्विधा । विशुद्धिस्तारतम्येन पुनर्नानात्वमञ्चति ॥ १८४ कर्मद्रव्यस्य योऽनन्तभागः सर्वावधेर्महान् । स सूक्ष्मात्सूक्ष्मविज्ञानविषयो जिननायकैः ॥ १८५ तस्यानन्तविभागस्य योऽन्त्यो भागः स इष्यते । विषयो विषयातीत ऋजुपुर्वमतेमहान् ॥ १८६ तस्याप्यनन्तभागस्य पुनर्भागस्तथान्तिमः । विपुलादिमते यो विषयः शुद्धमानसः ॥ १८७ जघन्येन च गव्यूतिपथक्त्वं क्षेत्रतो मतम् । ऋजुपूर्वमतेर्मान्यैरुत्कर्षाद्योजनानि तत् ॥ १८८ द्वितीयस्य जघन्येन योजनानि पृथक्त्वकम् । मानुषोत्तरशैलान्तमुत्कर्षेण समादिशेत् ॥ १८९ ( ऋजुविपुलमतिमें विशेषता )- ज्ञानकी आराधना कर उसमें तत्पर रहनेवाले पूज्य मुनियोंने उसकी प्राप्तिके लिये विशुद्धि और अप्रतिपात इन दोनोंमें विशेषता कही है ॥ १८२ ॥ मनःपर्ययज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जो मनमें संक्लेशरहित प्रसन्नता उत्पन्न होती है वह विशद्धि है ऐसा शुद्ध मनवाले आचार्योंने कहा है। वह विशुद्धि द्रव्यविशुद्धि, क्षेत्रविशुद्धि, कालविशुद्धि और भावविशुद्धि ऐसे चार भेद धारण करती है । ऋजुमति ज्ञानकी अपेक्षा विपुलमतिज्ञानकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे विशुद्धि अधिक है-विशुद्धतर है। कार्मणद्रव्यका अंतिम अनंतवा भाग जो कि सर्वावधिज्ञानने जाना था उसके पुनः अनन्तभाग करके जो अनन्तवा भाग आता है, वह ऋजुमति-मनःपर्ययका ज्ञेय होता है । उसकोभी अनंतबार अनंतसे भागनेपर जो द्रव्य अनन्तवा आ जाता है, वह विपुलमति मनःपर्ययका ज्ञेय-विषय समझना चाहिये । इस प्रकार विपुलमतिकी विशुद्धता ऋजुमतिकी अपेक्षासे विशुद्धतर होकर अनेक प्रकारोंको धारण करती है ॥ १८३-१८४ ॥ कर्मद्रव्यका जो अनन्तवा सूक्ष्म भाग माना गया है वह सर्वावधिज्ञानका विषय है ऐसा सूक्ष्मज्ञानी जिनेश्वरने कहा है । उसको फिर अनन्तसे अनन्तबार भागनेपर जो अन्त्य अनन्तवा भाग माना जाता है वह पंचेन्द्रिय-विषय-विरक्त मुनियोंसे ऋजुमतिका महत्वशाली विषय माना है। उसकोभी पुनः अनन्तबार भागनेसे जो अन्तिम भाग आता है वह विपुलमति मनःपर्ययका विषय है ऐसा विशुद्ध मनवाले महर्षियोंने माना है ।। १८५-१८६ ॥ ( ऋजुमति और विपुलमतिकी क्षेत्रविशुद्धि )- पूज्य ऐसे ऋजुमति मनःपर्ययका जघन्यक्षेत्र क्षेत्रकी अपेक्षासे गव्यतिपथक्त्व है अर्थात तीन कोसके ऊपर और नौ कोसके भीतर है अर्थात् इतने क्षेत्रमें लोगोंके मनःस्थित विचारोंको ऋजुमतिवाले मुनि जानते हैं। और उत्कर्षसे तीन योजनके ऊपर और नौ योजनोंके भीतर लोगोंके मनःस्थित पदार्थोंको-विचारोंको जानते हैं ॥१८८॥ . विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानका क्षेत्र जघन्यतः तीन योजनके ऊपर और नौ योजनके भीतर है। और उत्कर्षसे मानुषोत्तर पर्वतके अन्ततक अर्थात् उस पर्वतके भीतर है, बाहर नहीं है ।।१८९॥ १ आ. गदिता २ आ. योजनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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