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________________ -२. १०७) सिद्धान्तसारः ( ३१ पदानां सप्ततिर्लक्षा यस्य संख्या प्रकीर्तिता। वीर्यानुवादवीर्यस्य श्रीजिनादेनिरूपकम् ॥ १०० षष्टिलक्षपदोपेतं षटपदार्थोपवर्णकम् । अस्तिनास्तिमहाधर्मैरस्तिनास्तिप्रवादकम् ॥ १०१ एकोनकोटिसंख्यातपदं' सूर्यांशुनिर्मलम् । ज्ञानप्रवादमाख्यातं ज्ञानभेदादिसूचकम् ॥ १०२ वागङगुलिप्रकाराणां शुभाशुभवचस्तथा । सूचकं सत्यवादं च कोटीषडधिका पदम् ॥ १०३ षड्विंशतिश्च कोटीनां पदानां प्रतिपादकम् । आत्मप्रवादं जीवस्य कर्तृत्वादेर्मतं सताम् ॥ १०४ अशीतिलक्षकोटयेकपदसंख्यं हि कर्मणाम् । निर्जराबन्धमोक्षादिसूचकं कर्मवादकम् ॥ १०५ समस्तद्रव्यपर्यायप्रत्याख्यानादिसूचकम् । प्रत्याख्यानं हि लक्षाणामशीतिश्चतुरुत्तरा ॥ १०६ क्षुद्रविद्या महाविद्याः सप्तपंचशतानि याः। पृथुविद्यानुवादं तद्यत्र तासां निरूपणम् ॥ १०७ वीर्यानुवादकी पदसंख्या सत्तर लाख प्रमाणकी कही है। इसमें श्रीजिनेश्वर, गणधर आदिके वीर्यका वर्णन है ॥ १०० ॥ अस्तिनास्ति-प्रवादमें छह लाख पद हैं। यह पूर्व जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके अस्तिनास्ति धर्मोका वर्णन करता है ।। १०१ ।। ज्ञानप्रवादपूर्वकी पदसंख्या एक कम एक कोटि प्रमाणकी है । यह पदसंख्या सूर्यकिरणके समान उज्ज्वल है और इसमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान ऐसे पांच सम्यग्ज्ञानोंका और कुमति, कुश्रुति तथा कुअवधि ऐसे तीन अज्ञानोंका स्वरूप, संख्या और फलोंका वर्णन है ॥ १०२ ॥ सत्यप्रवादपूर्व में एक कोटि और छह पद है। इस पूर्वमें वचन और अंगुलि आदिकोंके प्रकार कहे हैं तथा शुभ और अशुभ वचनके भेद और गुप्तिओंका वर्णन है ।। १०३ ।। आत्मप्रवादपूर्वमें छब्बीस कोटि पद हैं। इसमें आत्माके कर्तृत्वादि अनेक धर्मोंका वर्णन किया है जो कि सज्जनोंको मान्य है ।। १०४ ।। ___ कर्मप्रवादमें पदोंका प्रमाण एक कोटि अस्सी लाखका है। इसमें कर्मोंकी निर्जरा, बंध, मोक्ष, उदय, उदीरणा आदिका कथन है ।। १०५ ।। प्रत्याख्यानपूर्वमें चौरासी लाख पदसंख्या है और इसमें समस्त द्रव्यपर्यायोंका प्रत्याख्यानत्यागका वर्णन है, अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा पुरुषके संहननादिकी अपेक्षासे सदोष वस्तुका त्याग, उपवासकी विधि, पांच समिति, तीन गुप्ति आदिका वर्णन है ॥ १०६ ।। विद्यानुवादपूर्व में सातसौ क्षुद्रविद्या और पांचसौ महाविद्याओंका वर्णन अर्थात् उनका सामर्थ्य, स्वरूप, मंत्रतंत्र, पूजाविधान तथा सिद्ध विद्याओंका फल, और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, छिन्न ऐसे आठ निमित्तोंका वर्णन हैं। जिनका विज्ञान असंख्य प्रमाण है ऐसे तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इसकी पदसंख्या एक कोटि दश लाख प्रमाणकी कही है ।। १०७-१०८॥ १ आ. संख्यं तु २ आ. वाचांगुप्ति ३ आ. स्त्वतः ४ आ. तत्वं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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