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संपादकीय
सिद्धान्तसारसंग्रहका प्रस्तुत संस्करण द्वितीय बार प्रकाशित किया जा रहा है। विषयकी दृष्टिसे यह ग्रंथ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र व गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्रंथोंकी परम्पराका है। इसमें सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा जीवादि सात तत्त्वोंका स्वरूप विधिवत् सरल रीतिसे समझाया गया है जिसकी रूपरेखा विषयपरिचयसे जानी जा सकती है। संस्कृत पद्यात्मक इस ग्रंथके रचयिता आचार्य नरेन्द्रसेन हैं जिनका प्रतिष्ठादीपक नामक एक और ग्रंथ पाया जाता है तथा जिनका काल विक्रम संवत्की बारहवीं शतीका मध्यभाग सिद्ध होता है।
प्रस्तुत ग्रंथका संस्करण पं. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले शास्त्री द्वारा तैयार किया गया है। उन्होंने मूल पाठ दो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों परसे किया है, उसका हिन्दी अनुवाद भी किया है, प्रस्तावनामें विषयपरिचय, ग्रंथके कर्तृत्त्व व रचनाकालादिका विवेचन किया है, तथा अनुक्रमणिकादि भी तैयार की है जिसके लिये हम उनके अनुगृहीत हैं।
__ इस ग्रंथका संस्करण और प्रकाशन करानेमें संस्कृति संरक्षक संघके संस्थापक ब्रह्मचारी जीवराज भाईकी विशेष रुचि थी। किन्तु हमें अत्यन्त दुःख है कि ग्रंथका मुद्रणकार्य पूर्ण होनेसे पूर्व ही उनका स्वर्गवास हो गया। हमें आशा है कि अब भी इस ग्रंथके प्रकाशनसे स्वर्गीय आत्माको संतोष लाभ होगा।
इस ग्रंथमाला का जो यह संशोधन-प्रकाशन कार्य विधिवत् चल रहा है उसमें संघकी ट्रस्ट कमेटी तथा प्रबन्ध समितिके समस्त सदस्योंका हार्दिक सहयोग ही प्रधानतः कारणीभूत है। इसके लिये हम उन सब के कृतज्ञ है । हमें विश्वास है कि इस ग्रंथके स्वाध्यायसे पाठकोंको जैन सिद्धान्तकी समस्त व्यवस्था समझने में सुलभता होगी।
संतोषभवन, शो ला पूर
ग्रंथमालाके सम्पादकआदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हीरालाल जैन
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