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-२. १० )
न हीन्द्रियादिविज्ञानं सूक्ष्माद्यर्थावभासकम् । तेषामनवभासेषु क्व सर्वज्ञः कुतः प्रभा ॥ ७ ततश्च ज्ञानमेवैतत्प्रमाणमभिधीयते । तत्र विप्रतिपन्ना ये न ते तत्त्वार्थदर्शिनः ॥ ८ मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमुत्तमम् ' । मनःपर्ययविज्ञानं कैवल्यमिति पंचधा ॥ ९ भावान्तरगता भावि' सम्यग्ज्ञानगता हामी । सामान्येनावगन्तव्या विशेषेण ! पुनः
परः ॥ १०
सिद्धान्तसारः
नहीं कर सकते हैं । इन्द्रियादिकोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान सूक्ष्म, अन्तरित और दूरके पदार्थोंको नहीं जानता है, और वे नहीं जाने गये तो सर्वज्ञ और उसका ज्ञान कैसे होगा ? ॥ ६-७ ॥
भावार्थ-अतः सन्निकर्षमें प्रमाणता नहीं है ज्ञानही प्रमाण है । इन्द्रियोंमें और मनमें जो जाननेका सामर्थ्य आया है वह आत्माके ज्ञानगुणसे आया है। उसके साहाय्यसे आत्मा जानता है । सामर्थ्य होनेसेही पदार्थका स्वरूप आत्मासे जाना जाता है, वह सामर्थ्य यदि नहीं होता तो सन्निकर्षका होना व्यर्थ पड जाता । अतः योग्यताही साधकतम है, सन्निकर्ष नहीं है । वह योग्यता प्रतिबंधक- ज्ञानावरणादि-कर्मोंका आवरण हट जानेसे उत्पन्न होती है, इसलिये योग्यता प्रतिबन्ध - कापायरूप है । योग्यता होने से स्वपरार्थावभासक ज्ञान होता है और वह नहीं होने से नहीं होता है | अतः वह योग्यता साधकतम है । जैसी कुल्हाडी वृक्षको काटनेमे साधकतम है, उसके बिना वृक्ष नहीं काटा जाता । वैसी योग्यता होनेपर पदार्थज्ञान होता है । उसके विना वह उत्पन्न नहीं होता है । इसलिये ज्ञानको जैनाचार्योंने प्रमाण माना है । ज्ञानके विषयमें जो मूढ हैं वे जीवादिक तत्वोंको नहीं जानते है । यहांतक ज्ञानकोही प्रमाण मानना चाहिये ऐसा विवेचन आचार्यने किया ॥ ८ ॥
( १९
( सम्यग्ज्ञानके भेद ) - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ऐसे सम्यग्ज्ञानके पांच भेद कहे हैं । स्पष्टीकरण - सम्यग्ज्ञानमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय नहीं रहते हैं । संशय में अनेक कोटियोंका अवलंबन होता है, परंतु कोईभी कोटि निश्चित नहीं रहती है । इसलिये वह ज्ञान प्रमाणरूप नहीं है । विपर्यय - कुछ सादृश्यसे एक वस्तुमें उससे भिन्न स्वरूप वस्तुका निर्णय होना, जैसे चांदीमें चमकीलापन देखकर सीपके तुकडेमें चांदीका भ्रम होनेसे उसे चांदी कहना व जानना । अनध्यवसाय - यह कुछ है ऐसा ज्ञान होना यानी पदार्थकी विशेषता ज्ञात न होना । ऐसे तीन ज्ञानोंको अप्रमाण ज्ञान कहते हैं । " प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् " संशयादिक जिसमें उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा वस्तुका जो यथार्थ निर्णय उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं । उपर्युक्त पांचही ज्ञान संशयादिकोंसे रहित होते हैं ॥ ९ ॥
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ये पांच भेदयुक्त ज्ञान अपने अपने विषयभूत अन्य पदार्थको जाननेवाले हैं । और ये सब सम्यग्ज्ञान है, ये सम्यग्ज्ञानके पांचभेद सामान्यसे कहे हैं । विशेष से पुनः दुसरे अनेक भेद होते हैं ॥ १० ॥
१ आ. इरुतं
२ आ. भावा ३ आ. परे
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