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द्वादशोऽध्यायः।
प्रणिपत्य गुरून्पञ्च पञ्चकल्याणभागिनः । आराधनां प्रवक्ष्यामि पञ्चमज्ञानहेतवे ॥१ दर्शनज्ञानचारित्रतपःपञ्चगुरूनिति । आराध्य जीव एवायं भव्यस्त्वाराधको भवेत् ॥ २ उपसेवा क्रिया पूता यामीषामतिभक्तितः। भव्यजीवस्य साभाणि जिनराराधना घना॥३ तत्त्वार्थाभिरुचिः पूता दर्शनं तद्विबोधनम् । ज्ञानं भवति चारित्रं यत्सावद्यनिवर्तनम् ॥ ४ यस्त्रयीविषये वर्य महोद्योगः प्रजायते । कायक्लेशावहोऽसह्यस्तत्तपस्तापकारणात् ॥५ घातिकर्मक्षयावाप्तकेवलज्ञानसंपदः । पूजामर्हन्ति सर्वेभ्यस्तेऽत्रार्हन्तः प्रकीर्तिताः ॥६ प्रविधूताष्टकर्माणः प्राप्ताष्टगुणसंपदः । स्वस्वरूपस्थिता नित्यं सिद्धास्ते सिद्धिभागिनः॥७
बारहवां अध्याय ।
गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष ऐसे पंचकल्याणोंके इन्द्रादिदेवकृत महोत्सवोंके धारक अर्हदादि पंचपरमेष्ठियोंको वन्दन करके मैं पांचवे ज्ञानके लिये- केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिये मैं आराधना करता हूं ॥१॥
( आराध्य और आराधक।)- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप और पंचपरमेष्ठियोंकी वन्दना ये आराध्य हैं और यह भव्यजीवही उनका आराधक अर्थात् आराधना करनेवाला है ॥ २ ॥
( आराधना । )- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप और पंचपरमेष्ठियोंकी स्तुति इनकी अतिशय भक्तिसे जो पवित्र सेवा करना वह भव्यजीवकी दृढ आराधना है ऐसा जिनेश्वरने कहा है ।। ३ ।।
जीवादिक तत्त्वार्थोपर जो पवित्र रुचि है वह सम्यग्दर्शन है। जीवादिक पदार्थों का जो ज्ञान, उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । तथा हिंसादि पापोंसे जो परावृत्त होना- हिंसादिकोंका त्याग करना सो चारित्र है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप, तीन श्रेष्ठ विषयोंमें जो महान् प्रयत्न किया जाता है तथा उष्णकाल, वर्षाकालमें परीषह सहन किया जाता है वह तप आराधना है । यह आराधना कर्णके समान हैं । अर्थात् जैसा नौकाका कर्ण नौकाको चलानेमें सहाय्यक है, वैसी यह तप आराधना सम्यग्दर्शनादि आराधनाओंको प्रबल बनानेमें सहाय्यक है ॥ ५॥
( अर्हत्परमेष्ठीका स्वरूप । )- जिन्होंने घातिकर्मका क्षय करके केवलज्ञानसम्पत्ति प्राप्त की है, जो इंद्र धरणेन्द्र, चक्रवर्ति आदिकोंसे पूजा योग्य हैं, वे अर्हन्त कहे गये हैं। वे आराधने योग्य हैं ॥ ६ ॥
( सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप । )- जिन्होंने ज्ञानावरणादि आठ कर्मोका नाश किया है और जिनको ज्ञानादि आठ गुणोंकी प्राप्ति हुई है जो अपने स्वरूपमें नित्य स्थित हैं, जिनको
१ आ. पञ्जज्ञानकहेतवे २ आ. जैनैः
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