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-११. ५९)
सिद्धान्तसारः
(२७१
तत्त्वार्थवेदिना' वाचा स्वसिद्धान्ताविरोधिना। परं प्रति प्रमाणेन निवेदयितुमिच्छता ॥५१ जायते यः स्मृतेः पूतः समन्वाहार इत्यथ । सोऽयमाज्ञाप्रकाशार्थ वरमित्यादिचिन्तनम् ॥५२ ये मिथ्यादृष्टयः सर्वे सर्वज्ञाज्ञाबहिःस्थिताः । सम्यङमार्गादपेतास्ते दूरमित्यादि चिन्तनम् ॥५३ मिथ्यादर्शनविज्ञानचारित्रेभ्यश्च्युता अमी। कथं जीवा भवन्त्यत्रेत्यवधारणमुत्तमम् ॥ ५४ अपायविचयो धर्मध्यानमाहुर्मनीषिणः । येनावाप्नोति भव्यात्मा कर्मापायं क्षणादपि ॥ ५५ कर्मणां हि विपाकेन फलानुभवनं प्रति । प्रणिधानं विपाकधर्मध्यानं निगद्यते ॥ ५६ लोकसंस्थानचिन्तायां संस्थानविचयो महान् । धर्मध्यानं मतं प्राज्ञैः कर्माष्टकविनाशनम् ॥५७ अप्रमत्तान्तजीवानां तद्धयानं जायते परम् । अनन्तसौख्यसंप्राप्तिहेतुभूतं महात्मनाम् ॥ ५८ शुक्ले पृथक्त्ववीतर्कमवीचारि द्वितीयकं । सूक्ष्मक्रियैकसम्पाति समुच्छिन्नक्रियं ततः ॥ ५९
बार बार जिनाज्ञाकी- जीवादितत्त्वोंकी चिन्ता करता है उसका वह पवित्र- प्रशस्त आज्ञाविचय नामक पहला धर्मध्यान है । जिनेश्वरकी आज्ञा प्रकाशित करनेके लिये जो उत्तम चिन्तन है वह आज्ञाविचय है ।। ४९-५० ॥
( अपायविचय धर्मध्यान। )- जो मिथ्यादृष्टि हैं वे सर्वज्ञकी आज्ञाके बाहर रहते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ जिनेश्वरकी आज्ञाको प्रमाण नहीं मानते हैं, वे यथार्थ मोक्षमार्गसे दूर रहे हैं इत्यादि चिन्तन करना अपायविचय है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे च्युत होकर ये जीव यथार्थ मोक्षमार्गमें कैसे प्रवृत्त होंगे, ऐसा जो बार बार स्मरण करना विद्वान लोग उसे अपायविचय धर्म्यध्यान कहते हैं । इस धर्मध्यानसे भव्यात्माके कर्मोंका अपाय-नाश तत्काल होता है ॥ ५१-५५ ॥
(विपाकविचय धर्मध्यान।)- ज्ञानावरणादि कर्मोंका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदिक कारणोंसे विपाक- उदय होता है और उसका नानाविध फल मिलता है ऐसा बार बार चिंतन करना विपाकविचय है ।। ५६ ॥
( लोकसंस्थानविचय।)- लोककी आकृतिका बार बार विचार करनेको विद्वान लोग संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं । यह धर्मध्यान आठ कर्मोंका विनाश करनेवाला है। यह चार प्रकारका धर्मध्यान अप्रमत्त गुणस्थानतक जीवोंको होता है अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंको होता है । यह चार प्रकारोंका धर्मध्यान महात्माओंको अनंतानंत सौख्यकी प्राप्ति करानेमें कारण है ॥ ५७-५८ ॥
( शुक्लध्यानके भेद।)- शुक्लध्यानमें पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रियासम्पाति, समुच्छिन्नक्रिय ऐसे चार भेद हैं ॥ ५९ ।।
३ आ. इत्ययं
१ आ. वेदिनो वाथ २ आ. स्वसिद्धन्ताविरोधतः ५ आ. विनाशकम् ६ आ. अपृथक्त्वादिकं च तत् ।
४ आ. आज्ञाविचय उच्यते
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