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(११. ३२
श्रद्धावान्यदि सत्साधुः स्वाध्यायं कुरुते सदा । परः 'स्याद्धयानवान्वेगात्स' याति परमां गतिम् ॥३२ साधु संहननस्येह यदेकाग्र निरोधनम् ' । चित्तस्यान्तर्मुहुतं स्याद्वयान माहुर्मनस्विनः ४ ॥ ३३ आतं रौद्रं मतं धर्मं शुक्लं चापि चतुविधम् । ध्यानं भवति जीवानां शुभाशुभगतिप्रदम् ॥ ३४ शस्ताशस्तादिभेदेन तद्द्वेधा पुनरीरितम् । आद्ये प्रशस्तमेवेदं परे शस्तं सुनिमलम् ॥ ३५ यत्प्रशस्तं तदेवेह मोक्षहेतु निवेदितम् । अप्रशस्तं पुनर्गीतं संसारस्यैककारणम् ॥ ३६ विषकण्टकशत्रुत्थबाधाविच्युतिचिन्तनम् । अमनोज्ञभवं चैतदाद्यमातं निगद्यते ॥ ३७ माद्यन्मित्रकलत्रादिधनधान्यादिलब्धये । संकल्पो यस्तु तज्ज्ञेयं मनोज्ञाख्यं द्वितीयकम् ॥ ३८
सिद्धान्तसारः
( स्वाध्याय से मोक्षकी प्राप्ती । ) - श्रद्धावान् होकर यदि साधु हमेशा स्वाध्याय करेगा तो वह उत्तम ध्यानवान् होगा अर्थात् वह आत्मस्वरूपके चिन्तनमें तत्पर और कुशल होगा जिससे वह शीघ्रही उत्तम गतिको - मोक्षको प्राप्त होगा ।। ३२ ॥
( ध्यानतपका वर्णन । ) - जो उत्तम संहननवाला है अर्थात् वज्रर्षभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन और अर्धनाराचसंहननका धारक है ऐसे विद्वानको अन्तर्मुहूर्ततक ध्यानतप होता है । अर्थात् उसका मन एक पदार्थपर स्थिर होकर अन्तर्मुहूर्तकालतक उसका विचार करता है । अन्य सब पदार्थोंसे अलग होकर एक पदार्थ में मन निश्चल होना एकाग्र चिन्तानिरोध है । अनेक पदार्थोंमें मन भ्रमण करता है और उनका बोध आत्माको होता है उस बोधको ज्ञान कहते हैं परंतु वह ज्ञान जब अग्निकी स्थिर ज्वालाके समान एकही विषयपर स्थिर होता है तब उसे ध्यान कहते हैं ।। ३३ ॥
( ध्यानके भेद । ) - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ऐसे ध्यानके चार भेद हैं । ये जीवोंको अशुभगति देनेवाले और शुभगति देनेवाले हैं । इनकेही प्रशस्त ध्यान और अप्रशस्त ध्यान ऐसे दो भेद कहे हैं । जो ध्यान पापास्रवके कारण हैं उन्हें अप्रशस्त ध्यान कहते
। ये अप्रशस्तध्यान जीवको नरक तिर्यग्गतिके कारण हैं और प्रशस्तध्यानसे जीवको सुगतिकी प्राप्ति होती है और संपूर्ण कर्मका क्षय होने से मोक्षप्राप्ति होती है। पहले दो ध्यान अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्तही हैं । और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान निर्मल हैं। इसलिये वे मोक्षके कारण हैं तथा प्रशस्त हैं। जो अप्रशस्त ध्यान हैं संसारके मुख्य कारण हैं ।। ३४-३६ ॥ ( अमनोज्ञ संयोगज आर्तध्यान । ) - विष, कण्टक, शत्रु इनसे जो पीडायें उत्पन्न होती हैं उनसे पीडित होकर ये पीडायें कब दूर हो जावेंगी ऐसा संतत चिन्तन वह अमनोज्ञअनिष्ट संयोगज नामका पहला आर्तध्यान है ॥ ३७ ॥
( मनोज्ञ - वियोगज आर्तध्यान । ) - हर्षयुक्त मित्र, पत्नी, आज्ञाधारक पुत्र इत्यादिकोंकी तथा धन्यधान्यादिकोंकी प्राप्ति मुझे होवे, ऐसा जो मनमें संतत संकल्प उत्पन्न होता है उसे मनोज्ञ
१ आ. पदस्थध्यानं २ आ. योगात् ३ आ. यदेकाग्रे निरुन्धनम् ४ आ. तद्वयान ५ आ. धर्म्यं ६ मनोज्ञात
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