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________________ २६२) सिद्धान्तसारः (१०. १६१ निरनुज्ञस्तथोद्दिष्टवर्जी वर्यो निगद्यते । एकादश मता जैने शासने श्रावका इति ॥ १६१ यतीनामर्धदण्डः स्यात्तेषामन्तद्वयोरपि । तस्याप्यधं त्रये तस्याप्य, षण्णामुदीरितम् ॥ १६२ श्रावकाणां विशेषेण प्रायश्चित्तं जिनागमात् । परिज्ञाय प्रदातव्यं नान्यथा मुनिपुङ्गवः ॥ १६३ ये तु जीवाश्रिताः सन्ति भावास्तीवादयः पुनः । तद्वशाबहुधा देयं शोधनं शुद्धिहेतवे ॥ १६४ पूर्वाचार्यः प्रणीतं यत्प्रायश्चित्तमनेकधा । तदंशांशो मयाप्यत्र तत्प्रासादानिवेदितः ॥ १६५ यद्यत्र जायते किञ्चिद्विरुद्धं श्रीजिनागमात् । न मे दोषो यतः किञ्चिन्न जानामि विशेषतः ॥१६६ केवलं जिनराद्धान्तश्रद्धानावाप्तिहर्षतः । स्तोतुमेनं तदालम्बाद्यदृच्छावचनोऽभवम् ॥ १६७ .---............. रहता है। अर्थात् दिनमें ब्रह्मचर्यका पालन करता है। सातवी प्रतिमावाला पूर्ण ब्रह्मचारी होता है। जिसमें हिंसा होती है ऐसे आरंभका पूर्ण त्यागी आठवी प्रतिमावाला होता है। उसको निरारंभ श्रावक कहते हैं । बाह्य दश प्रकारोंके परिग्रहोंका त्याग करनेवाला नवमी परिग्रहत्याग प्रतिमाका पालक श्रावक है । आरंभ, परिग्रह और विवाह आदिक ऐहिक कर्मोंमें पुत्रादिकोंको जो श्रावक सम्मति नहीं देता है वह अनुमतित्यागी श्रावक है । उद्दिष्ट आहारका त्यागी जो श्रावक उसे उद्दिष्टाहारत्यागी कहते है । इस प्रकार जैनशासनमें ग्यारह प्रकारके श्रावक होते है ॥ १५९-१६१ ॥ ( श्रावक प्रायश्चित्तकी व्यवस्था।)- जो यतियोंको प्रायश्चित्त दिया जाता है उसका आधा प्रायश्चित्त दसवी व ग्यारहवी प्रतिमावालोंको है। इनके प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त सातवी, आठवी और नौमी प्रतिमावालोंको है। और इनके प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त पहली प्रतिमासे छठी प्रतिमावालोंको होता है ॥ १६२ ॥ । श्रेष्ठ मुनियोंको श्रावकोंका जो विशेष प्रायश्चित्त है यह जिनागमसे जानकर देना चाहिये । बिना जाने देना योग्य नहीं है ।। १६३ ।। जीवके आश्रयसे तीव्र मंदमध्यमादिक भाव होते हैं और जिन्होंसे दोषोंमें तीव्र मंदादिक भेद होते हैं और उनसे प्रायश्चित्तभी अनेक प्रकारके कोमल मृदु आदि भेदवाले होते हैं। ऐसे प्रायश्चित्त शुद्धि के लिये देने चाहिये ॥ १६४ ॥ पूर्वाचार्योंने जो प्रायश्चित्त अनेक प्रकारोंसे लिखा है उसके अंशका अंश मैने इस प्रकरणमें पूर्वाचार्योंके प्रसादसे कहा है ॥ १६५ ॥ ( ग्रंथकारकी लघुता )- इस प्रायश्चित्तका वर्णन करते समय मुझसे जिनागमके विरुद्ध कुछ लिखा गया होगा। परंतु मेरा वह दोष नहीं है, क्योंकि, मैं कुछ विशेष नहीं जानता हूं ॥१६६॥ केवल जिनसिद्धान्तके ऊपर श्रद्धा करनेसे जो मुझे आनंद प्राप्त हुआ है उसके आश्रयसे मैने जिनसिद्धान्तकी स्तुति करनेके लिये कुछ वचन कहे हैं ॥ १६७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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