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________________ -९. १८०) सिद्धान्तसारः (२३१ परनिन्दात्मनो नित्यं प्रशंसाकरणं सदा। सद्गुणोच्छादनं तावदसदुद्भावनं परम् ॥१७६ यः करोति नरो नीचो निजत्वोच्चकवाञ्छया। नीचर्गोत्रं स बध्नाति कुधी(रविवर्जितः॥१७७ तद्विपर्ययतः प्राणी गुणोत्कृष्टेषु वत्सलः । सगुणो निर्मदः स स्यादुच्चैर्गोत्रस्य' साधनम् ॥१७८ विघ्नस्य कारणं घोरं घोरदुःखप्रदायकम् । यः करोति नरो दोनः सोऽन्तरायसमन्वितः ॥१७९ आयुःकर्मविमुक्तानि सप्तकर्माणि देहिनाम् । युगपत्क्षणतस्तस्मानास्रवन्त्ययतात्मनाम् ॥१८० यथाकाल अर्थात् जिसका जो काल नियत है, उसमें वह कार्य करना आवश्यकापरिहाणि है । १५ मार्गप्रभावना-ज्ञान, तप, जिनपूजा और विद्या आदिकोंके द्वारा धर्म प्रकाशित करना। १६ प्रवचनवत्सलता- गाय जैसे बछडेपर स्नेह करती है वैसा सार्मिकोंपर प्रेम करना । ऐसे ये सोलह कारण तीर्थकरत्व प्राप्तिके हेतु हैं । ये व्यस्त अथवा समस्त कारण उत्तमतया तरतमरूपतासे चिन्तनमें लाने चाहिये ऐसा महात्माओंने कहा है ॥ १७१-१७५ ॥ ( नीचगोत्रके आस्रवहेतु । ) - परनिंदा-दोष वास्तविक हो अथवा न हो तोभी उसको प्रगट करनेकी जो इच्छा उसे निन्दा कहते हैं। दूसरोंके विद्यमान दोष प्रगट करना अथवा झूठे दोष कहना परनिंदा है । आत्मप्रशंसा-गुण प्रगट करनेका अभिप्राय होना प्रशंसा है। अपनेमें गुण न होते हुएभी मैं सत्य बोलता हूं, प्रामाणिक हूं, इत्यादिक गुणोंका वर्णन करना स्वप्रशंसा है। दूसरे लोगोंमें गुण होनेपर भी उनके गुणोंको ढक देना और अपने में गुण न होनेपरभी उनको प्रगट करना, उनकी वाहवा करना नीच गोत्रास्रवके कारण हैं। जो मनुष्य स्वयंकी उच्चत्वकी इच्छासे उपर्युक्त कारणोंको करता है, गंभीरता रहित वह कुमति नीचगोत्रका बंध कर लेता है ॥ १७६-१७७ ॥ (उच्चगोत्रके आस्रव कारण। ) - जो नीचगोत्रके कारण कहे हैं, उनके विपरीत कारणोंसे उच्चगोत्रके आस्रव जीवमें आते है। अर्थात् आत्मनिंदा, परप्रशंसा, परसद्गुणोद्भावन और स्वसद्गुणाच्छादन ऐसे कारणोंसे उच्चगोत्रके आस्रव आते हैं। तथा जो अपनेसे गुणोंसे अधिक श्रेष्ठ हैं उनके ऊपर स्नेह करना, उनके साथ विनयवृत्तिसे रहना, कदाचित् स्वयं विज्ञानादि गुणोंसे उत्कृष्ट होनेपरभी उनसे गर्वरहित होना ऐसे कारणोंसे उच्चगोत्रके आस्रव आते हैं ॥ १७८॥ ( अन्तरायास्रवके कारण।)- जो दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्तिमें घोर विघ्न उत्पन्न करता है, उसे ऐसे कुकार्यसे घोर दुःख प्राप्त होता है। जो दीन-अज्ञान मनुष्य ऐसे दानादिकोंमें विघ्न करता है, वह अन्तरायकर्मसे युक्त होता है ॥ १७९ ॥ (एक समय में कितनी कर्मप्रकृतियोंका आस्रव होता है इस प्रश्नका उत्तर।)-जिनको आयुकर्मका बंध हो चुका है उनको उसके बिना बाकीके सात कर्मोंका निरंतर बंध होता है । तथा जिनको आयुकर्मका बंध नहीं हुआ है उनको एकक्षणमें आठोंही कर्मोका बंध होता है। १ आ. निजोच्चत्वस्य २ आ. भाजनम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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