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________________ -९. १६९) सिद्धान्तसारः (२२९ विनीतकस्वभावत्वमनौद्धत्यमनेकधा । अल्पसारम्भताक्लेशमरणं मानुषस्य च ॥ १६५ स्वभावमार्दवं चापि तस्यायुषो निबन्धनम् । सरागसंयमस्तावत्संयमासंयमोऽपि वा ॥ १६६ अकामनिर्जरा बालतपो देवस्य कारणम् । तस्याप्यत्र विशेषेण सम्यक्त्वं यत्तु कारणम् ॥१६७ अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषतः । आस्रवद्वारमाख्यान्ति प्रख्यातव्रतधारिणः ॥ १६८ योगस्य वक्रता धर्मिविसंवादनमायतम् । मिथ्यात्वेनास्थिरत्वं च वञ्चनाबहुला स्थितिः॥१६९ ( मनुष्यायुके कारण । )- प्राणिपीडाका आरंभ जिसमें अल्पप्रमाणमें होता है, मरणकालमें जिसके परिणाममें संक्लेश नहीं रहता है, उपदेशके बिना अर्थात् स्वभावसेही जिसके मनमें मृदुभाव- दया रहती है, जो नम्र स्वभाववाला, सरलस्वभावी, नीतियुक्त व्यवहार करनेवाला, जिसके कषाय मंद हैं उसे मनुष्यायुके आस्रव होते हैं ।। १६५ ॥ ( देवायुके आस्रवकारण । )-- सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुके आस्रवकारण हैं। तथा जो सम्यग्दर्शन- जीवादि सप्त तत्त्वोंपर यथार्थ श्रद्धान है, वह विशेषतासे देवायुके आस्रवका कारण समझना चाहिये । यद्यपि सम्यग्दर्शन सामान्यतया देवायुका कारण कहा है; तोभी यहां वह सौधर्मादि स्वर्गके देवायुका कारण समझना चाहिये । तथा सम्यक्त्वके होनेसेही चारित्रको सरागसंयम, संयमासंयम ऐसे नाम प्राप्त होते हैं। उसके अभावमें यदि चारित्र चारित्रस्वरूप नहीं माना जाता, तो वह सरागसंयम, संयमासंयम ऐसे नामवाला कैसे होगा? सरागसंयम और संयमासंयम इनका लक्षण पूर्वमें कह चके हैं। अ निर्जरादिका स्वरूप यहां कहते हैं- जैसे कैदमें पडा हुआ कोई मनुष्य पराधीन होनेसे भूखको सहता है, प्यासकी वेदना सहता है, ब्रह्मचर्य से रहता है, जमीनपर सोता है, इत्यादि बाधायें सहन करता है, सहनेच्छा- रहित होनेपरभी नाइलाजसे सहन करनेसे उसके थोडेसे कर्म निर्जीर्ण होते हैं। अपनी इच्छा न होते हुएभी कष्ट सहन करना अकाम निर्जरा है। बालतप- मिथ्यावृष्टि तापस, सांन्यासिक, पाशुपत, पारिवाजक, एकदंडी, त्रिदंडी, परमहंसादिकोंके कायक्लेशादि- लक्षण युक्त जो तप, जिसमें कपटसे युक्त व्रत धारण होता है, उसे बालतप कहते है ॥ १६६-१६८॥ ( अशुभनामके आस्रवकारण।)-योगकी वक्रता, धर्ममें दीर्घकालतक विसंवाद, मिथ्यात्वके साथ मनकी अस्थिरता, अतिशय प्रतारणायक्त स्वभाव ये अशभनाम कर्मास्रवके कारण हैं, ऐसा आगमसमुद्र के मध्यमें अवगाहन करनेवाले जैनाचार्य कहते हैं। स्पष्टीकरण-योगवक्रता-मनवचन और शरीरसे कपटवृत्ति धारण करना । विसंवादन-अभ्युदय और मोक्षप्राप्तिकी क्रियाओं में कोई प्रवृत्त हुआ है और वह सत्य मार्ग में तत्पर है, परंतु उसमें भ्रम उत्पन्न करके तू अयोग्य मार्गमें लगा हुआ है। इसको छोडकर मेरे कहे हुए सत्य मार्गपर तू चल; जिससे तेरा हित होगा, १ आ. शुभकारणं २ आ. मिथ्यात्वमस्थिरत्वं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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