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________________ -८. ७०) सिद्धान्तसारः ततो रज्ज्वर्षपर्यन्तं ब्रह्मब्रह्मोत्तराभिधम् । स्वर्गयुग्मं हि विस्तीर्ण कीर्तयन्ति क्रियाविदः॥६० ततो रज्ज्वर्द्धपर्यन्तं स्वर्गयोर्युगलं महत् । चारुलान्तवकापिष्टसञ्जयोनिगदन्ति तत् ॥ ६१ ततो रज्ज्वर्धपर्यन्तं स्वर्गयोर्युगलं महत् । अस्ति शुक्रमहाशुक्राभिधानं चारुतान्वितम् ॥ ६२ ततो रज्ज्वर्धपर्यन्तं स्वर्गयोर्युगलं महत् । सच्छतारसहस्रारसंज्ञया प्रथितं भवेत् ॥ ६३ ततो रज्ज्वर्धपर्यन्तं स्वर्गयोर्युगलं महत् । आनतप्राणताहृ स्यात्सर्वसौख्यकरं वरम् ॥ ६४ ततो रज्ज्वर्धपर्यन्तं स्वर्गयोर्युगलं महत् । आरणाच्युतसंज्ञं यद्विद्यते विस्मयावहम् ॥ ६५ आद्ये युग्मद्वये तत्र तन्नामानः सुशोभनाः । इन्द्राश्चत्वार एवामी विज्ञेया ऋद्धिसंयुताः ॥ ६६ तवं सिद्धिसोपानस्वर्गयुग्मचतुष्टये । प्रत्येकमेक एवेन्द्रस्तन्नामासौ निगद्यते ॥ ६७ तवं च युगद्वन्द्वे इन्द्राश्चत्वार एव च। सर्वे' स्वर्गेषु जायन्ते द्वादशैते समासतः ॥ ६८ एकरज्ज्वन्तरे तस्मादूर्ध्वग्रैवेयकानि च । ततश्चानुदिशान्याहुनवानुत्तरपञ्चकम् ॥ ६९ द्वादशयोजनान्यस्मादूर्ध्व मुक्तशिला मता । अष्टयोजनबाहुल्या नृलोकपरिमाणतः ॥ ७० उसके अनन्तर अर्थात् सानत्कुमारमाहेन्द्र - स्वर्गयुगलके अनंतर आधी रज्जुपर्यन्तके आकाशप्रदेशमें ब्रह्मब्रह्मोत्तर - स्वर्गका युगल है । इसके अनन्तर अर्ध रज्जु-प्रमित आकाशप्रदेशोंमें लान्तवकापिष्टका युगल है, इसके अनन्तर अर्धरज्जुपर्यन्तके आकाशप्रदेशमें शुक्र महाशुक्र नामक सुंदर स्वर्गयुगल है । उसके अनन्तर अर्धरज्जु-प्रमित आकाशप्रदेशमें शतारसहस्रारयुगल है । तदनंतर अर्ध रज्जुप्रमाण आकाशमें आनत-प्राणत नामक स्वर्गयुगल है, जो कि उत्तम और सर्व सुखोंका आगर है । इसके अनंतर आधे रज्जुके आकाशप्रदेशमें आरणअच्युत नामक महान् स्वर्गयुगल है, जो कि जीवोंको अपनी रचनासे आश्चर्यचकित करता है ॥ ६०-६५ ॥ ( सोलह स्वर्गों में अधिपति इंद्रोंका वर्णन । )- पहले दो युगलोंमें अर्थात् सौधर्मसे सानत्कुमारतक चार स्वर्गों में सौधर्मादि स्वर्गके नामवाले शोभायुक्त चार इंद्र हैं। वे महद्धिके धारक हैं। उनके ऊपर सिद्धि - मुक्तिके पैडी के समान चार स्वर्गयुगलोंमेंसे प्रत्येकमें स्वर्गके नामवाला एक एक इन्द्र है। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें ब्रह्मेन्द्र नामक इन्द्र है। लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गमें लांतवेन्द्र है। शुक्रमहाशुक्रमें शुक्रेन्द्र है और शतारसहस्रारमें शतारेन्द्र हैं । ऐसे चार इन्द्र हैं । इनके ऊपर आनतादि दो स्वर्गयुगलमें चार इन्द्र हैं । ऐसे सर्व स्वर्गों में - सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र हैं ।। ६६-६८ ॥ (एकरज्जु प्रदेशमें नवग्रैवेयकादिक और सिद्धजीव हैं। )- एकरज्जुके अन्तराल रूप आकाशप्रदेशमें नवग्रैवयक विमान, नवअनुदिश विमान, और पंचानुत्तर विमान हैं । पञ्चानुत्तरके ऊपर द्वादश योजन जानेपर मुक्तिशिला है । वह आठ योजन मोटी और मनुष्यलोकके समान २ आ. हि ३ आ. सर्व ४ आ. मोक्ष १ आ. तु S. S. 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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