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________________ सिद्धान्तसारः ( ७. १७४ शशादिशकुलकर्णा महिष्यावरणाः पुनः । लम्बकर्णा विदिश्वेते भवन्ति मनुजाधमाः ।। १७४ अवसिंह मुखास्तावच्छ्वमुखेभमुखाः पुनः । वराहव्याध्धकाकेकक पिवर्गमुखाः परे ।। १७५ विद्युन्मेषमुखाः सर्वे पार्श्वयोरुभयोर्मताः । शिखर्याख्यस्य शैलस्य विविधाकारधारिणः ॥ १७६ मत्स्य मेषमुखाः कालमुखा हिमवतस्ततः । तत्पार्श्व उभयोः सन्ति सर्वे पल्योपमायुषः ॥ १७७ आदर्शहस्तिवाश्च पार्श्वयोरुभयोर्मताः । उत्तरस्यां हि रूप्याद्रेः समुद्रान्तैकर्तनः ॥ १७८ दक्षिणस्यां हि रूप्याद्रेः पार्श्वयोरुभयोः पुनः । गोमेषवदनाः सन्ति मानुषाश्चिरजीवनाः ॥ १७९ एकोरुका मृदाहारा गुहायां सन्ति वासिनः । शेषाः पुष्पफलाहारा वृक्षैकतलवासिनः ॥ १८० द्वीपः सर्वेऽपि ते तोयात् योजनोत्सेधर्वातनः । कालोदेऽपि तथा ज्ञेयाः कुत्सिता भोगभूमयः ॥ १८१ कर्मभूमिभवाः सर्वे पुलिन्दा नाहलादयः । पापकर्मरता नित्यं दुष्टा दुर्गतिगामिनः ॥ १८२ १७८) उत्तर दिशा के द्वीपोंमें वचनरहित अर्थात् मूक मनुष्य हैं । विदिशाओंमें जो द्वीप हैं उनमें रहनेवाले मनुजाधमोंके कान शशके समान, शष्कुलीके समान - भैसके समान हैं तथा आवरणके समान कर्ण हैं और लंब कर्ण हैं ।। १७३ - १७४ । अश्वके समान मुखवाले, सिंहके समान मुखवाले, कुत्ते के समान मुखवाले, हाथी के समान मुखवाले, वराह - सूकर, व्याघ्र, कौवा और बंदर इन प्राणिओंके समान मुखवाले ऐसे अन्तद्वीपज विदिशाके द्वीपमें रहते हैं ।। १७५ ।। बिजलीके समान मुखवाले, मेष - बकरेके समान मुखवाले, मनुष्य शिखरी नामक कुल पर्वतके दोनो पार्श्वोपर जो द्वीप हैं उनमें रहते हैं । हिमवान पर्वत के दोनों पार्श्वोपर जोद्वीप हैं उनमें मत्स्यमुखवाले, मेषके मुखवाले और काले मुखवाले ये सभी मनुष्य हैं । ऐसे विविधाकारको धारण करनेवाले ये सभी मनुष्य एक पल्योपम आयुके धारक हैं । समुद्र के बीचमें जिसके अन्त घुस गये हैं ऐसे विजयार्द्ध पर्वतके उत्तरके जो पार्श्व भाग हैं उनके द्वीपोंमें दर्पण के समान मुख - वाले और हाथी के समान मुखवाले म्लेच्छ रहते हैं । विजयार्द्ध पर्वतके दक्षिणके दो पार्श्वभाग में जो द्वीप हैं उनमें गायके मुखसमान मुखवाले और बकरेके मुखसमान मुखवाले दीर्घकालीन आयुवाले मनुष्य हैं ।। १६७–१७९ ।। जो एक पांववाले हैं वे गुहामें रहते हैं । और मृत्तिकाभक्षण करते हैं तथा बाकी पुष्प और फलोंका आहार लेते हैं तथा वृक्षके तलमें रहते हैं ।। १८० ॥ वे सर्वद्वीप पानीसे एक योजनकी ऊंचाईपर है । कालोदसमुद्रमें भी लवणसमुद्रके समान कुत्सित भोगभूमि हैं ।। १८१ ।। पुलिन्द, नाहल - पक्षियोंको पकडनेवाले पारधी, आदि शब्दसे शक, यवन, शबर आदिक कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं । वे कर्मभूमिज म्लेच्छ पापकर्म करनेमें प्रीति रखते हैं । हमेशा दुष्ट होनेसे दुर्गतिमें जानेवाले ।। १८२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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