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________________ १३४) सिद्धान्तसारः (५. १२५ पृथिवीकायिकानां हि जीवानां जितकल्मषैः । योनयः कथिता देवैः सप्तलक्षप्रमाणतः ॥ १२५ घोरमिथ्यात्वसंभूतभवभावविवर्तिनाम् । मतास्तावन्त एवामी योनयो जलकायिनाम् ॥ १२६ तेजःकायभृतां तावत् तावन्तः परिकीर्तिताः । योनयो जितमात्सर्यैराराध्यैः पूर्वसूरिभिः ॥ १२७ वातकायिकजीवानां कर्मपाकहतात्मनाम् । योनीनां सप्तलक्षाणि प्रवक्ष्यन्ते विचक्षणः ॥ १२८ नित्यं निगोदजीवानां नारकेभ्योऽतिवतिनाम्।योनीनां सप्तलक्षाश्च भवन्ति भवतिनाम् ॥१२९ तथेतरनिगोतानां अनन्तासातवर्तिनाम् । गोयन्ते योनयो नित्यं मुनिभिः सूत्रवेदिभिः ॥ १३० भरुहाणामनन्तानां योनयो गदिता जिनः । दशलक्षाः प्रमाणेन प्रमाणनयनायकैः ॥ १३१ सर्वे सम्मिलिता गीता योनयो भवतिनाम् । जीवानां सर्वलक्षाणामशीतिश्चतुरुत्तरा ॥ १३२ द्वाविंशतिस्तथा सप्त त्रयः सप्त ततः पुनः । पृथ्वीदकाग्निवातानां कुलानां कोटिलक्षकाः॥१३३ जिन्होंने पापनाश किया है, ऐसे गणधरदेवोंने पृथिवीकायिक जीवोंकी योनियाँ सात लक्ष कही हैं । १२५ ॥ __ घोर मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुए सांसारिक-भावोंसे संसारमें घूमनेवाले जलकायिकजीवोंकी योनिसंख्या सात लक्ष है ॥ १२६ ॥ जिन्होंने मत्सरभावोंको जीत लिया है और जो भव्योंके आराध्य हैं ऐसे पूर्वसूरियोंने तेजस्कायिक जीवोंकी योनिसंख्या सात लक्ष कही है ॥ १२७ ।। ___ अशुभ कर्मोदयसे जिनकी आत्मा मारी गयी है ऐसे वातकायिक जीवोंकी योनिसंख्या विचक्षण-चतुर आचार्य सात लक्ष कहते हैं । १२८ ॥ ____नारकियोंसेभी अतिशय दुःखी और भवमें घूमनेवाले नित्यनिगोदी जीवोंकी योनियाँ सात लक्ष हैं ।। १२९ ॥ ___अनंत दुःखोंसे व्याकुल ऐसे इतर निगोदी जीवोंकी योनिसंख्या सूत्रज्ञ मुनियोंने हमेशा सात लक्ष प्रमाण कही है ॥ १३० ॥ प्रमाणनयोंके नायक ऐसे जिनेश्वरोंने अनंत वनस्पतियोंकी योनिसंख्या दस लक्ष कही ___ संसारमें घूमनेवाले संपूर्ण जीवोंकी कुल योनिसंख्या चौरासी लक्ष होती है ऐसा जिनेश्वरोंने कहा है ॥ १३२ ॥ ( कुलोंकी संख्या कहते हैं। )- पृथिवीकायिक जीवोंकी कुलसंख्या बाईस कोटि लक्ष है। जलकायिक जीवोंकी सात लक्ष कोटि है। अग्निकायिक जीवोंकी तीन लक्ष कोटि है और वातकायिकोंकी कुलसंख्या सात लक्ष कोटि है ।। १३३ ।। १ सप्तलक्षाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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