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सिद्धान्तसारः
(५. ११३
प्राक्चतुभ्यॊ भवत्येषा जीवस्येह सविग्रहात्' । गतिः संसारिणः सत्यं विग्रहाय प्रवर्तिताः॥११३ निष्कुटक्षेत्रमुत्पित्सो: समुद्घातान्प्रकुर्वतः । तथा गतिश्चतुर्थेऽस्य समयेऽविग्रहा हि सा ॥ ११४ एकं वा समयं जन्तु वा त्रीन्वा विवजितः । आहारेण प्रवृत्तोऽसौ देहान्तरमनन्तरम् ॥ ११५ नवमूर्त्यन्तरं तस्य मूर्च्छनातः प्रजायते । गर्भादथोपपादाद्वा विचित्रं चात्र कारणम् ॥ ११६ सचित्ताचित्तशीतोष्णाः संवृता विवृतास्तथा । मिश्राश्च योनयो ज्ञेया नवेति भविनामिह ॥११७
(विग्रहगतिका काल । )- चार समयके पूर्व में संसारी जीवकी गति विग्रहसहित होती हैं अर्थात् मोडेवाली होती है । और वह विग्रहके - शरीरके लिये होती है । निष्कुट क्षेत्रमें जो जीव उत्पन्न होनेवाला है उसकी गति निष्कूटक्षेत्रतक सरल आकाशप्रदेश नहीं होनेसे इषके बाणके समान सरलगति न होनेसे उस क्षेत्रको लेजानेकेलिये तीन मोडेकी गतिको प्रारंभ करता
। चौथ समयमें वह मोडा रहित सरल गमन करता है। इसके ऊपर चार मोडीवाली, पांच मोडीवाली गति नहीं होती है, क्योंकि इतने मोडे लेनेके लिये क्षेत्रही नहीं है ॥ ११३-११४ ॥
एक समय, दो समय और तीन समय में यह प्राणी तीन शरीर-औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरोंको और आहारादि छह पर्याप्तियोंको ग्रहण करने योग्य ऐसा आहार ग्रहण नहीं करता। और चौथे समयमें देहकी रचनाकेलिये आहारक होता है अर्थात् शरीर निर्माणयोग्य पुद्गलवर्गणाओंको ग्रहण करता है ।। ११५ ।।
(जन्मके तीन प्रकार ।)- जीवका शरीर मूर्च्छनासे या गर्भसे और उपपादसे होता है; क्योंकि, इसके कारण विचित्र हैं। देवोंका शरीर उपपादशिलासे उत्पन्न होता है और नारकियोंके शरीर नरकबिलमें उत्पन्न होते हैं। मनुष्य और पशुओंका शरीर गर्भसे उत्पन्न होता है । तथा एकेन्द्रियादि जीवोंका शरीर सम्मछेनासे होता है । अर्थात् मातापिताके रजवीर्यकी अपेक्षाके बिना चारों तरफके स्कंधोंका आकर्षण करके उनके शरीरकी अवयवरचना होती है ।। ११६ ।।
(जीवके जन्मके आधारभूत योनियोंका वर्णन । )- सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, निवृत और मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ऐसे योनियोंके नौ भेद हैं । जीवोत्पत्तिके चैतन्ययुक्त स्थानको सचित्तयोनि कहते हैं। जिस जन्मस्थानके प्रदेश अदृश्य होते हैं अर्थात् नहीं दिखते हैं उसको संवृतयोनि कहते हैं । जिस जीवोत्पत्तिका स्थान ठंडा होता है उसे शीतयोनि कहते हैं । इसके उलट स्वभावके जन्मस्थानोंको अचित्त, विवृत और उष्णयोनि कहते हैं तथा जिनमें मिश्र स्वभाव रहता है उनको सचित्ताचित्त, संवृतविवृत और शीतोष्ण योनि कहते हैं । ऐसे गुणयोनियोंके नौ भेद कहे हैं । ये योनियाँ जीवोंके जन्मस्थान हैं ।। ११७ ॥
१ आ. सविग्रहा २ आ. प्रवर्तिनः ३ आ. विचित्राश्चर्यकारणम् ४ संवता-संवृतास्तथा
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