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दोष नष्ट होता है। मलोत्सर्ग करनेपर कायोत्सर्गसे शुद्धि होती है। एक कायोत्सर्गमें नौ पंचनमस्कार होते हैं। कौनसा दोष कितने कायोत्सर्गोंसे नष्ट होता है इस विषयका विवेचन कायोत्सर्गके प्रकरण में है। कुछ दोष प्रतिक्रमणसे नष्ट होते हैं जैसे जूं, खटमल आदिक जन्तुओंको मुनि पकडे तो प्रतिक्रमणसे उनकी शुद्धि होती हैं। उष्णकालमें दोषका प्रायश्चित्त जघन्य होता है। वर्षाकालमें मध्यम तथा शीतकालमें उत्कृष्ट होता है।
इस प्रायश्चित्ततपके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना, पारंचिक ऐसे दश भेद हैं। इनका आचार्यने खुलासा इस विभागमें किया है। इस प्रकार दसवे अध्यायमें निर्जरा और प्रायश्चित्तका वर्णन आचार्यने किया है।
ग्यारहवे अध्यायमें आचार्यने आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मज्ञान और शुक्लध्यानका वर्णन कर शुक्लध्यानसे सब कर्मोंका नाश होनेसे मोक्षप्राप्ति होनेका प्रतिपादन किया है। इस अध्यायके प्रारम्भमें विनयतपका वर्णन करते हुए आचार्यने उसके चार भेदोंका निरूपण किया है।
तदनंतर वैयावृत्त्यतपके कथनमें आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि दशविध मुनियोंका वर्णन किया है। उनकी सेवाशुश्रूषा करना महापुण्य प्राप्तिका कारण है।
स्वाध्यायसे व्रतोंका निरतिचार पालन होता है। स्वाध्यायमें मन, नेत्र, आदिक इन्द्रियोंके लगनेसे संयमकी प्राप्ति होती है। स्वाध्यायसे धर्म और शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है जिससे कर्मका क्षय होकर मोक्ष प्राप्त होता है ।
स्वाध्यायके अनन्तर ध्यानका लक्षण लिखकर आर्तरौद्र ध्यानके भेदोंका वर्णन किया है। ये ध्यान संसारभ्रमणके कारण हैं। इसलिये इनको अप्रशस्त कहते हैं। धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान प्रशस्त हैं। इनसे जीवको स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति होती है। आर्तध्यान मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर प्रमत्तगुणस्थानतक होता है। तथा रौद्रध्यान मिथ्यात्वसे लेकर संयतासंयतान्तपांचवे गुणस्थानतक होता है।
धर्मध्यानके चार भेदोंमेंसे पहला भेद आज्ञाविचय है। उपदेशके अभावसे, जीवादि तत्त्वोंके सूक्ष्मस्वरूपका ज्ञान अपनी स्थूलबुद्धीसे नहीं होता अतः सर्वज्ञकी आज्ञाको प्रमाण मानकर तत्त्वोंके अर्थका निश्चय करना आज्ञाविचय कहलाता है। अपायविचय- जो मिथ्यादृष्टि जीव सर्वज्ञकी आज्ञा न मानकर रत्नत्रय मार्गसे हट गये हैं-च्युत हुए हैं उनको किस प्रकार रत्नत्रयमार्गमें लगाना चाहिये इस प्रकारके चिन्तनको अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं। विपाकविचयज्ञानावरणादिक कर्मोंका द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावादिकारणोंसे विपाक होता है तथा उनका नानाविध फल मिलता है ऐसा बार बार चिन्तन करना विपाकविचय है। लोकसंस्थान विचयलोककी आकृतिका बार बार विचार करनेको संस्थानविचय कहते हैं। ये चार प्रकारके धर्मध्यान अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानतक होते हैं। ये चार धर्मध्यान योगियोंको अनन्तानन्त सुखकी प्राप्तिके कारण हैं।
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