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________________ सिद्धान्तसारः ( ४. १४८ - अन्येनास्य प्रयुक्तत्वे स्वातन्त्र्यं तस्य हीयते । आशावशाच्च हीनत्वं तस्य स्यादुर्निवारतः ' ॥१४८ क्रीडा तस्य कर्तृत्वे क्रीडोपायव्यपेक्षणात् । प्रागेव जगतः सिद्धिः स्यान्नित्यमनिवारिता ॥ १४९ मूर्तस्य जगतः कर्तासौ मूर्तोऽमूर्त एव वा । विकल्पद्वयमायाति दुरतिक्रममायतम् ॥ १५० नामूर्ती मूर्तकार्याणां घटादीनां कदाचन । कुम्भकारः क्वचिद्दृष्टः केनचिद्वा कथञ्चन । १५१ अथ मूर्तः करोत्येष सर्वं तन्वादिकं क्षणात् । ततः सैव स्वपक्षस्य व्याघ्रीव समुपस्थिता ॥ १५२ आगमात्तस्य सिद्धिर्न प्रमाणं जातु जायते । तत्राप्रमाणभूतत्वात्स्वाभिप्रायनिवेदनात् ॥ १५३ ततश्च जगतः कर्ता सर्वज्ञो न हि कश्चन । किन्त्वावृतिक्षयादेष विश्वज्ञो विश्वदर्शनात् ।। १५४ ९४) दूसरे द्वारा प्रेरित होकर यदि जगन्निर्माण कार्य ईश्वर करता है ऐसा कहते हो तो ईश्वरका स्वातंत्र्य नष्ट होता है और आशावश होकर यदि ईश्वर जगत् बनाता होगा तो वह हीनताका भागी होगा, क्योंकि आशावशतासे वह हीनता नष्ट न होगी ।। १४७ - १४८ ॥ ईश्वरसे क्रीडासे जगत् रचा जाता है तो वह क्रीडाके उपायोंको हमेशा चाहता होगा ? और इससे तो पूर्व मेंही जगत् की उत्पत्ति सिद्ध हुई । क्योंकि क्रीडाके उपाय इस जगतसेही उसे प्राप्त होते होंगे जिससे पूर्व मेंही अनिवारित जगत्की उत्पत्ति सिद्ध हो चुकी ॥ १४९ ॥ इस मूर्तिमान जगतका कर्ता मूर्त है अथवा अमूर्तही है, ऐसे दो विकल्प उत्पन्न होते हैं। जिनका उल्लंघन करना अशक्य है । अमूर्तिक ईश्वर मूर्तिक पदार्थोंका कर्ता कभीभी नहीं हो सकता, क्या मूर्ति घडा आदि पदार्थोंका कर्ता कुंभकार कभी अमूर्तिकरूपसे किसीको कथञ्चित् दृष्टिगोचर हुआ है ? अर्थात मूर्तिक घटादिकोंका कर्ता कुंभकार मूर्तिक ही होता है । कुंभकार कदापि अमूर्ति नहीं होता ।। १५०-१५१ ।। अब यदि मूर्तिक ईश्वर सर्व तन्वादिक पदार्थोंको क्षणमें करता है तो यह उसकी मूर्तिकता ईश्वरके पक्षको खानेवाली व्याघ्रीके समान उपस्थित हो गई । क्योंकि ईश्वर मूर्तिक है इस विषयका आगम में कुछभी उल्लेख नहीं है । ईश्वरको हाथ नहीं है, पांव नहीं है, उसको आंखें नहीं हैं तो भी वह देखता हैं । तथा कान न होनेपर भी वह सुनता हैं । इत्यादिरूप उसका वर्णन जो आगममें है वह उसकी अमूर्तताको व्यक्त करता हैं " अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्ण: " इत्यादि ॥ १५२ ॥ ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्वकी आगमसे सिद्धि होती है ऐसा कहना कभी प्रमाणभूत नहीं हो सकता है | आगममें प्रमाणभूतता होनेसे वह आगम अपना अभिप्रायही कह देता ॥ १५३ ।। इसलिये जगत्का कर्ता कोई सर्वज्ञ नहीं होता है । सर्व कर्मोंके आवरणों का क्षय करके ही सर्वज्ञपना प्राप्त होता है । सर्वज्ञ क्षुधा, तृषा, वृद्धावस्था, रोग, आदि अठारह दोषोंसे रहित होता १ आ. अनिवारितं Jain Education International २ आ. तस्या For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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