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________________ ८८) सिद्धान्तसारः (४. ११५ विशिष्टेष्वपि शब्देषु प्रवाहान्नित्यता यदि । ज्ञाताज्ञातार्थरूपाणामिति प्रश्नद्वयं भवेत् ॥ ११५ अज्ञातार्थे ' च शब्दस्य न प्रामाण्यं कदाचन । ज्ञातार्थत्वं हि नो तेषां तद्वयाख्यातुरभावतः॥११६ तयाख्याता च किञ्चिज्ञश्चेत्कथं तत्प्रमाणता।सर्वज्ञत्वे'च सस्थं स्यात्सर्व सर्वज्ञवादिनाम॥११७ धर्माद्यतीन्द्रियार्थेषु तस्यैव ज्ञानरूपिणः । प्रामाण्यं न तु शद्वानामज्ञानाचेतनात्मनाम् ॥ ११८ ताल्वादिकारणाज्जातः कार्यरूपस्तु सर्वथा। शब्दो नित्यः कथं तेषां मीमांसापक्षवादिनाम्॥११९ तस्मादनित्य एवायं कृतकत्वादिधर्मतः । वदन्त्यकृत्रिमं ये तु तेऽपि मिथ्यादृशः सताम् ॥ १२० माननेपर लौकिक शब्दोंमेंभी नित्यत्व मानना पडेगा और तब वैदिक शब्दही नित्य हैं ऐसा कथन अल्पज्ञानका होगा । शब्दत्व समान होनेपर लौकिक शब्द क्यों अनित्य होवें इस प्रश्नका उत्तर मीमांसक क्या देंगे? ॥ ११३-११४॥ कदाचित् विशिष्ट शब्दोंमेंही प्रवाहनित्यता अनादिकालसे चली आ रही है ऐसा कहोगे, तो जिनका अर्थ जाना गया है ऐसे विशिष्ट शब्दोंको प्रवाहनित्य आप मानते है अथवा जिनका अर्थ नहीं जाना गया ऐसे विशिष्ट शब्द प्रवाहनित्य मानते हैं, ऐसे दो प्रश्न उपस्थित होते हैं ।। ११५ ॥ जिसका अर्थ नहीं जाना गया, उसमें कभी प्रामाण्य नहीं आ सकेगा । क्योंकि उसके व्याख्याताका अभाव होनेसे ज्ञानार्थत्व नहीं है (अर्थात उस पदार्थका ज्ञान नहीं होगा)॥११६॥ उन शब्दोंका व्याख्याता कोई असर्वज्ञ होगा, तो उस असर्वज्ञको कौन प्रमाण मानेगा? और वह यदि व्याख्याता सर्वज्ञ होगा, तो वह प्रमाण माना जावेगा और सब घुटाला मिटेगा। अर्थात् सर्वज्ञवादीका पक्ष सिद्ध होगा ।। ११७ ॥ धर्म-पुण्य, अधर्म-पाप, सूक्ष्म-परमाण्वादिक पदार्थोकी शक्तियां, तथा अग्नि आदिक पदार्थोकी दहनादि शक्तियाँ ये सब अतीन्द्रिय पदार्थ हैं। उनका निरूपण सर्वज्ञके बिना कौन करेगा ? उनका ज्ञान करानेका सामर्थ्य सर्वज्ञमेंही है, अन्योंमें नहीं है। शब्द अज्ञान और अचेतन हैं। उनमें वक्ताके प्रामाण्यसेही प्रामाण्य आता है, क्योंकि सम्यग्ज्ञानको आचार्य प्रमाण मानते हैं शब्दोंको नहीं ॥ ११८ ॥ शब्द ताल्वादि कारणोंसे उत्पन्न होता है अतः वह सर्वथा कार्य है वह नित्य कैसे होगा? इसलिये मीमांसापक्षवालोंका ' शब्द नित्य है' यह पक्ष सिद्ध नहीं होता ॥ ११९ ॥ शब्दमें कृतकत्व धर्म है, परिणमन है, रुकना प्रेर्यता आदि धर्म हैं। अत एव वह अनित्यही है। परंतु जो उसे अकृत्रिम-नित्य-अपरिणामी एक व्यापक आदि कहते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं ऐसा सज्जनोंका-सम्यग्ज्ञानियोंका मत है ।। १२० ॥ १ आ. अज्ञातार्थेषु २ आ. शब्देष ३ आ. सर्वज्ञेऽत्र च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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