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सिद्धान्तसार:
( ४. १०६ -
तदेतदपि मोहान्धतमः संछत्रचेतसाम् ' । चेष्टितं नष्टधर्माणां विचारानुपपत्तितः ॥ १०६ नित्यत्वं व्यापकत्वं च यदि स्याद्वर्णशब्दयोः । खण्डशः प्रतिपत्तिश्चेत्कथं केन निवार्यते ॥ १०७ सर्वत्र सर्वदा तेषां वृत्तित्वात्कथमेकदा । सर्वात्मना प्रतीतिः स्याद्वटादेरनिवारिता ॥ १०८ सादृश्ये प्रत्यभिज्ञानमाभासं यत्तदेव हि । ततस्तस्मात्कथं सिद्धिनित्यव्यापित्वर्दाशिनी ॥ १०९ तदभिव्यञ्जकानां यन्नियमाद्युगपच्छ्रुतिः । तस्मात्तदपि मिथ्यात्वं मत्यज्ञानैकर्वातिनाम् ॥ ११०
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वर्ण और शब्दोंको नित्य और व्यापक माननेसे उनका खंडश: ज्ञान होगा यह दोष कैसे दूर किया जावेगा ? एक शब्द पूर्णतया कोई मनुष्य नहीं सुन सकेगा, क्योंकि उसका कुछ अंश यहां होगा तो कुछ अंश अन्यत्र होगा । तथा जो अंश जहां होगा वह उतनाही सुना जानेसे वर्णका और शब्दका पूर्ण ज्ञान नहीं होगा जिससे अर्थपूर्णता का अभाव होगा । और अल्प प्रतिपत्तिसेज्ञानसे कोई कार्य किसीसे न किया जायेगा अर्थात् सर्व कार्य अधूरेही रह जायेंगे । सर्वत्र और सर्वदा वर्ण और शब्द पूर्ण भरकर रहने से एक समयमें और एक स्थान में संपूर्णतया घटादि पदाथका ज्ञान बेरोकठोकके एकसाथ कैसे होगा ? इसलिये वर्ण और शब्द व्यापक मानना योग्य नहीं । जैसे घटादिक वा पटादिक पदार्थोंका ज्ञान हमको पूर्णरूपसे हो जाता है, वैसेही अक्षरका और शब्दका पूर्ण ज्ञान हो जाता है । अतः वह अक्षर और शब्द घटपटादिके समान अनेक और अव्यापक हैं ऐसाही मानना योग्य है ।। १०७-१०८ ।।
वही यह अक्षर है 'वही यह शब्द है' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है, वह मिथ्या है । यहां सादृश्यमें आपको भ्रम हुआ है इसलिये यह वही शब्द है, यह वही अक्षर है इस तरह एकत्वप्रत्यभिज्ञान होता है, ऐसा आप कहते हैं । ऐसे भ्रान्त एकत्वप्रत्यभिज्ञानसे अक्षर और शब्दकी नित्यत्व और व्यापित्वकी सिद्धि कैसे होगी ? वही दीप है 'वही नृत्य है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान एकत्वका साधक नहीं है । वैसेही वही शब्द है इत्यादि ज्ञान एकत्वका प्रसाधक नहीं है । अतः शब्द, अक्षर अनेक हैं और अव्यापक हैं ऐसा समझना चाहिये ।। १०९ ।
शब्दको प्रगट करनेवाले अभिव्यंजक वायु होनेसे शब्द प्रगट होता है, ऐसा नियम मानना भी योग्य नही है । जैसे दीपक घरमें लानेसे घट दिखताही है, ऐसा नियम नहीं हैं क्योंकि घट यदि घरमें नहीं है तो दीपक लानेसे भी नहीं दिखेगा, अतः शब्दको वायु प्रगट करते हैं ऐसा कहना योग्य नहीं । अर्थात् शब्दको वायु उत्पन्न करते हैं, ऐसाही मानना चाहिये | अभिव्यंजक वायुसे शब्द प्रगट होता ही है, ऐसा नियमपूर्वक समझना मत्यज्ञान धारण करनेवालोंका मिथ्यात्व है अर्थात् शब्दको वायु प्रगट करता है, तथा वह शब्द नित्यव्यापक है, ऐसी कल्पनाभी मिथ्यात्व से मीमांसकों के मनमें प्रगट हुई है ॥ ११० ॥
१ आ. तमश्च्छन्नैकचेतसां २ आ. पटादे
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