SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. २९. ५ ] हिन्दी अनुवाद फिर वरने उस वैरियोंके लिए दुर्गाह्य उज्जयिनी नगरीके मध्य प्रवेश किया। नगरीके ऊंचे स्थानोंपर खड़े होकर हर्षयुक्त हुई नारियां उन्हें एकचित्तसे देखने लगीं। वे सराहना करतो थीं-क्या यह रति है और यह कामदेव है ? इस प्रकार यशोधर मातृगृहमें पहुँचा । पुत्रने सिर नवाकर माताको प्रणाम किया तथा अभयमति देवीने भी सासके चरणोंमें नमस्कार किया। अपनी पुत्रवधूको सौन्दर्ययुक्त देखकर चन्द्रमतीने यह कहते हुए अपना सन्तोष प्रगट किया-यह चन्द्रमुखी ही तो है। यशोधर अपना विवाह कराकर भार्याके साथ आनन्दपूर्वक दिव्य भोग भोगने लगा। यशोधने विचार किया कि मैं स्वयं अपने पत्रके साथ अन्य और पांच राज-कन्याओंका विवाह कराऊंगा। पूर्वकालमें वासवसेनने जैसी रचना की थी उसे देखकर ही गन्धर्वने यह विवाह वर्णन किया है। राजा यशोघने अपनी प्रतिज्ञानुसार अपने पुत्रका विवाह पांच कोमल भुजाओंवाली नरेन्द्र कन्याओंसे करा दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर राजाने अपने शय्यागृहमें, जब दर्पणमें अपना मुख देखा तो उन्हें अपना एक केश चन्द्रकिरणके समान उज्ज्वल दिखाई दिया। उसे देखकर राजा चिन्तित हुए कि क्या मेरे दुर्भाग्यकी राशि-जरारूपी दासीने, रतिरूपी सोत ( सपत्नी ) का मथन करनेके लिए मेरा केश ग्रहण किया है ? ॥ २७ ॥ २८. राजा यशोधका वैराग्य राजा विचार करने लगा कि वृद्धावस्थारूप उग्र कालाग्नि द्वारा तारुण्यरूपी वनके जला डालनेपर उसके श्वेत केशोंका भार मानो, उसकी भस्मको उड़ाता है। वृद्ध पुरुषकी मुखकी लारके साथ उसकी बल-शक्ति भी गिर जाती है। वृद्धके पापसे उसकी पुण्य-सृष्टि मानो उसकी रदन वृष्टि ( रत्न वृष्टि या दाँतोंके पतन ) के रूपमें उसके मुखसे गिर जाती है। उसकी दृष्टि उसी प्रकार मन्द हो जाती है जैसे कामिनी स्त्रीकी गति । वृद्धको लाठी भी उसका साथ नहीं देना चाहती, वह भी उसके हाथसे छूट-छूटकर गिर जाती है। फिर भला अन्य कोई विलासिनी उसके पास केसे ठहर सकती है ? वृद्धके पद ( पैर ) भो बराबर नहीं चलते । वे उसी प्रकार लड़खड़ाते हुए चलते हैं जैसे कुकवियों द्वारा विरचित पद । वृद्धके कर ( हाथ ) का प्रसार होता दिखाई नहीं देता, जैसे कुत्सित स्वामोसे पीड़ित हुए ग्राममें करप्रसार (राजशुल्कका संचय) नहीं देखा जाता । वृद्धके शरीरका लावण्य मानो जरारूपी नदीकी अभंग तरंगों द्वारा धोकर बहा दिया जाता है। सातों ही राज्य अंग तथा आठों हो शरीरके उपांग इस भुवनमें किसीके लिए सदा काल नहीं टिकते। अतएव में अनासक्ति भावसे तप करते हुए धर्मके दश अंगों और पंच महाव्रतोंका पालन करूंगा ॥२८॥ २९. यशोधरका राज्याभिषेक यशोधर राजपुर नरेश कहते हैं कि मेरे पिता यशोघने पूर्वोक्त प्रकार विचार कर मेरा पट्ट-बन्ध ( राज्याभिषेक ) कर दिया, मानो सहस्रों बन्धुओंसे मेरा स्नेहबन्ध किया हो। अथवा मानो दीन-जनोंके लिए स्वर्णदानका प्रबन्ध किया हो। तथा मानो शत्रु राजाओंका बाहु-बन्ध किया हो। फिर मेरे पिता कामरूपी सर्पके दपंका अपहरण करनेवाले परम जैनधर्मके मार्गके अनुयायी बन गये। इधर मैंने अपनी इन्द्रियोंपर विजयके साथ-साथ पहले आत्मविद्या (आन्वीक्षिकी) का अभ्यास किया। मैंने चारों वर्णोका त्रयीविद्या द्वारा भले प्रकार अनुशासन किया तथा उद्दण्ड दुष्टोंको दण्डनीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy