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________________ -१. १५.१८ ] हिन्दी अनुवाद जिनदीक्षाके नियमोंका पालन करनेवाले मुनियोंने मुनिराजसे भिक्षाके हेतु जानेके लिए अनुमतिकी प्रार्थना की तथा प्रणामकर क्षुल्लक-युगलकी ओर देखा। तब कामदेवको जीतनेवाले उन परमेश्वर गुरुसे उस क्षुल्लक-युगलने भी भिक्षाके लिए जानेकी आज्ञा माँगी ॥१३॥ १४. क्षुल्लक-युगलका वर्णन _ उन छुल्लक नर-नारीका गात्र नाना शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न था। वे हँसमुख थे । हाथ हो उनके लिए पात्र था। उनके नेत्र कमल-सदश सुन्दर थे। वे धार्मिक नियमोंका विधिवत् पालन करते थे, जिनभगवान्के चरणोंके भक्त थे और विषयोंसे विरक्त थे। वे सब पापों और दोषोंको त्याग चुके थे और स्वजन-परजनकी भावनासे रहित थे। दयायुक्त थे और उत्तम पात्र थे। वे धर्ममें आसक्त थे। अपने गुणोंसे गौरवशाली थे, तथा उन्होंने मद, मानादिके चक्रको जीत लिया था। वे एकमात्र स्वात्मचिन्तनमें लोन थे और उनका हृदय जीवमात्रके लिए कल्याणकी भावनासे ओत-प्रोत था। वे अशभ कर्मोंसे विमुक्त थे। ऐसे वे छल्लक नर-नारी गुरुकी आज्ञा पाकर नगरके बाहरी भागमें पहुँचे। उस पवित्र बालक-युगलको देखकर लोग कमल हिलाने लगे व उनसे प्रेम-पूर्वक वार्तालापका प्रयत्न करने लगे। इसी समय हाथोंमें खड्ग लिये उन पाप-परायण राज-सेवकोंने उन्हें देखकर कठोर स्वरमें कहा- यह नरमिथुन सर्वोत्कृष्ट है और ग्रहण करने योग्य है । इनका पकड़ना भी सरल है और हमारे क्लेशको दूर करनेवाला है। इनके हाथोंके अग्रभाग बहुत सुन्दर हैं। वे समस्त सौन्दर्ययुक्त हैं। विधिवशात् इनका जीवन समाप्त होने पर है । वे समस्त बलिपशुओंसे युक्त महीतलके तिलकभूत देवीके मन्दिरमें बलिक्रिया द्वारा मारने योग्य हैं। उन्होंने इस प्रकार कहकर और भृकुटि चढ़ाकर अपने शरीरके तेजकी किरणमालासे दोप्तिमान् तथा त्रिभुवनमें श्रेष्ठ उस बालक-युगलको रोषपूर्वक उनके हाथोंसे पकड़ लिया ॥१४|| १५. क्षुल्लकोंका परस्पर धर्म-चिन्तन उस लोकभयकारी शिर-छेदनकी बात जानकर तथा जीवोंके मर्दन व मारण शब्दको सुनकर कामदेवको जीतनेवाले कुमार अभयरुचिने स्थिर भावसे कहा और अपनी सच्चरित्र व सुकुमार बहनको आश्वासन दिया। वह बोला-हे कन्ये, आज हमारी मृत्युका दिवस आ जाने पर भी भयभीत मत होओ और अपने निर्विकार एवं मृत्युको शंकासे रहित हृदयको जिनेन्द्रके स्मरणमें लगाओ। यह शरीरका चर्म छिद जाये एवं शरीरका रस, वशा आदि भिद जाये, राक्षस माँस खा डालें, तो भी यदि मुनि अपना शील खण्डित न करें तो इन सबसे वह मुनि प्रसिद्ध हो होता है, देवयोनि प्राप्त करता है एवं अष्टगुणधारी सिद्ध भी हो जाता है। यह रोद्र-स्वभावी क्षुद्र राजा हमारे प्राणोंका क्या अपहरण करेगा, हमारे लिए निश्छल जिनेन्द्र धर्मरूपी औषधि शरण है। इस पर उस चन्द्रमखीने पूलकित होकर कहा-आपने जैनधर्मके इस निर्मल सत्रको यथोचित रूपसे कहा। हम परस्पर क्षमाभावसे युक्त हैं, शान्त हैं, इन्द्रियोंको दमन किये हुए हैं और संयमधारी हैं। इसी धर्मसाधनासे में इस जन्म-मरणके दुर्दम कीचड़में चिरकालोन परिभ्रमणोंको समाप्त कर सकुंपी। आपके उस वचनको मैंने हृदय में धारण कर लिया और उसे क्षणमात्र भी विस्मरण नहीं करूंगी। मैं अपने इस सांसारिक जीवनको तुच्छ समझती हूँ और इस शरीरको कोई परवाह नहीं करती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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