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प्रस्तावना
३८ पंक्तियों तकका समावेश पाया जाता है (४, २७)। अधिकांश कडवकोंकी रचना पज्झटिका ( पद्धडिया ) और अलिल्लह ( अडिल्ला ) छन्दोंमें हुई है। ये दोनों ही छन्दोंके चरण सोलह मात्राओंके होते हैं और दो चरणोंमें परस्पर यमक ( तुकबन्दी ) रहती है। किन्तु दोनों छन्दोंकी अपनी-अपनी विशेषता यह है कि जहाँ पद्धडियामें प्रत्येक चरणका अन्त जगण (लगल ) से होता है वहाँ अलिल्लहका चरणान्त दो लघु स्वरों ( ताल ) से होता है।
मात्रिक छन्द
उदाहरणार्थ-(१) पज्झटिका छन्द
कोंडिल्ल-गोत्त-णह-दिणयरासु । वल्लह-णरिंद-घर-महयरासु ॥ णण्णहो मंदिरि णिवसंतु संतु । अहिमाणमेरु कइ पुप्फयन्तु ॥ (१, १, ३-४ ) (२) अलिल्लह छन्द
अण्णु धम्मु गुणु मोक्खु ण याणमि । हउँ पंचिदिय-सोक्खइँ माणमि ॥ तुहुँ पुणु काइँ मि दीसहि दुव्वलु । णत्थि चीरु पगुरुणु ण कंवलु ॥ ( ३, १९, ३-४ )
(३ ) पादाकुलक छन्द उक्त दो छन्दोंके अतिरिक्त सोलह मात्राओं वाले चरणोंके अन्य भी प्रकार होते हैं, जैसे अन्तमें लघु-गुरु या गुरु-गुरु मात्राओंसे युक्त। इन भेदोंको ‘पादाकुलक' छन्द कहा गया है और यह भी प्रस्तुत ग्रन्थमें बहुतायतसे प्रयुक्त हुआ है । जैसे :
जत्थ य चूय-कुसुम-मंजरिया । सुय-चंचू-चुंवण-जज्जरिया ॥ हा सा महुरत्तेण व खद्धा।
कहिमि विडेण व वेसा लुद्धा । ( १, १२, १-२ ) कहीं-कहीं-प्रत्येक चरणमें पन्द्रह ही मात्राएँ दिखाई देती हैं जिनकी अन्तिम मात्रा लघु प्रतीत होतो है । जैसे -
रणवीरु वि सूरु वि कि तवइ । बहु-पहरहिं णिहणु जि संभवइ ।। रवि उग्गु अहोगइ णं गयउ ।
णं रत्तउ कंदउ णिक्खिवियउ ॥ ( २, २, २-३ ) यहाँ यद्यपि चरणान्त पद तवइ, संभवइ, गयउ और णिक्खिवियउ अन्त-लघ-मात्रिक हैं और व्याकरणकी दृष्टिसे ठीक भी हैं। तथापि यदि हमारे कान छन्दकी लयको पहचानते हैं तो वे हमें बतला सकते हैं कि उन पदोंका अन्त स्वर दीर्घ अर्थात् द्वि-मात्रिक ही मानना पड़ेगा। तभी छन्दका निर्वाह हो सकेगा और उक्त चरणों में सोलह-सोलह मात्राएँ सिद्ध होंगी एवं छन्द पादाकुलक पाया जायेगा। छन्दशास्त्रका नियम भी है कि पदान्त स्वर ह्रस्व होनेपर भी गुरु माना जा सकता है ।
प्रस्तुत काव्यमें जिन अन्य मात्रिक व वर्णिक छन्दोंका समावेश पाया जाता है वे निम्न प्रकार हैं :
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