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________________ ४. ३१. ३४ ] हिन्दी अनुवाद १५७ ३१. काव्यकर्ता पुष्पदन्तका आत्मपरिचय तथा जगत्-कल्याणकी शुभ कामनाके __ साथ काव्य समाप्ति । पापहारिणी मुग्धा नामक ब्राह्मणोके उदरसे उत्पन्न, श्यामलवर्ण, काश्यप गोत्री केशवके पुत्र, जिनेन्द्र-चरणोंके भक्त, धर्ममें आसक्त, व्रतोंसे संयुक्त, उत्तम सात्त्विक स्वभावी अथवा श्रेष्ठ काव्य शक्तिधारी, शंकारहित, अभिमान-चिह्न, प्रफुल्ल-मुख, खण्ड कविने यह यशोधर कथाकी रचना की और उसके द्वारा विद्वानोंकी सभाका मनोरंजन किया। जो मनुष्य इसे सुने, अच्छा माने, लिखे-लिखावे एवं पढ़े-पढ़ावे, अथवा मनमें भावना करे वह अपने कर्मोको सघन धलिको झड़ाकर मोक्ष रूपी शाश्वत सम्पदाको प्राप्त करेगा। जिस समय देश-वासी नीरस हैं, दुष्कृत्योंसे मलिन हैं, कवियोंके निन्दक हैं, देश में दुस्सह दुःख व्याप्त रहा है, जहां-तहाँ कपाल और नर-कंकाल पड़े दिखाई देते हैं और अधिकांश गृहोंमें दरिद्रता व्याप्त है, ऐसे अत्यन्त दुष्काल में गुणोंके भक्त महामन्त्री नन्नने मुझे अपने विशाल प्रासादमें रखकर, सरस आहार देकर, चिकने वस्त्र और उत्तम ताम्बूलों द्वारा मेरा बहुत उपकार किया और मुझे इस पुण्य-कार्यमें प्रेरित किया । अतएव वे चिरायु हों, यह मेरा आशीर्वाद है। समयपर वर्षा हो; मेदिनी ( पृथ्वी ) तृप्त होकर धन-धान्य प्रदान करे; गोस्वामिनो विलास करें; कामिनो नृत्य करें; मादल ( भेरो ) घूमें तथा मंगल-कल्याणका प्रसार हो, शान्ति फैले और दुःखका विनाश हो; धर्म-उत्साहके साथ नरेन्द्र सुखभोग करें और प्रजा भी आनन्द करे; परमात्माको जय हो, जिनेन्द्रको जय हो, भय और मदका हरण करनेवाले महापुरुषोंकी जय हो, मुझे शुद्ध और उज्ज्वल केवलज्ञानको प्राप्ति हो, मैं इतना ही वरदान चाहता हूँ। मैंने इस काव्यको रचना करते हुए अज्ञानवश जो कुछ हीन या अधिक कहा हो, उसे वे मेरी माता महासती सरस्वती देवी क्षमा करें, जो समस्त सन्देह रूपी दुखोंको दूर करती हैं । वे पूज्य त्रिभुवनमें सारभूत तथा पुष्पदन्त तीर्थंकरके मुखसे निःसृत वाणी रूप हैं ॥३१॥ इति महाकवि पुष्पदन्त-विरचित महामन्त्री नन्नके कर्णामरण रूप यशोधर-महाराज-चरित नामक महाकाव्यमें चण्डमारि देवता तया मारिदत्त राजाको धम-लाम नामक चतुर्थ संधि-परिच्छेद समाप्त ॥४॥ इति यशोधरचरित समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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