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________________ ४. २८. २ ] हिन्दी अनुवाद १५१ प्रजापालक राजा था, जो भगवतीके चरणोंके जलसे प्रक्षालित अर्थात् देवीका उपासक था । उसीने राज्य छोड़कर तुम्हें इस महीतलका राज्य दिया । उसने स्वयं भगवतीकी दीक्षा ग्रहण कर ली और अनेक नदियों एवं सरोवरों रूप तीर्थोंमें स्नान किया । वह पृथ्वीपर भ्रमण करते-करते अपनी नगरीको लौटा और इसी देवीकी मठिका में बस गया । यहाँ रहते हुए वह तपस्या करता और साथ ही अपने मनमें यह इच्छा भी करता कि मुझे भी ऐसी देवता ऋद्धि प्राप्त हो । इस इच्छा सहित मरकर उसने अपनी वही महान् वाञ्छा प्राप्त कर ली और वह चण्डमारी देवता होकर यहाँ विराजमान हो गया। इस प्रकार तुम्हारा पिता अपने पुल्लिंगायुको खोकर अपनी अशुभ भावना के वशसे स्त्रीलिंगधारी हो गया । तुम्हारी जो सुरूपा, सुलक्षणा तथा विचक्षण बुद्धि चित्रसेना नामक जननी थी, वह शुभ भावसे उपशम गुणका पालन करते हुए प्राण त्यागकर भैरवानन्दके रूपमें उत्पन्न हुई, जिसका कि तुमने दण्डवत् प्रणाम किया है और जो महीतलपर सम्मानित होते हुए प्रेमसे रह रहा है । उसने अब अपने शरीरको करुणारससे पूर्ण कर लिया है, जिसके फलस्वरूप वह आगे कल्पवासी देव होगा । उज्जैनी नगरी में जो उन्नतस्कन्ध सुप्रसिद्ध राजा यशोबन्धुर थे वे षट्दर्शनके भक्त हुए । उन्होंने अनेक मठ, देवालय, कूप, दीर्घिका, खूब जलसे भरी हुई पुष्करिणी तथा महाकालका रत्नजटित देदीप्यमान शिखर युक्त मनोहर निर्माण कराया। उन्होंने बहुत निष्ठाके साथ अनेक तापसों तथा भगवतीके यतीश्वरोंको सरस आहार देकर प्रसन्न किया। उन्होंने अति सुदृढ़, विशाल, उन्नत तथा शिखर पर ध्वजाओंसे मण्डित जिन- भगवान् के चैत्य-गृह भी बनवाये और दान भी खूब दिया । तथापि उनके हृदय में मिथ्याभाव जागृत रहा। उन्होंने वनक्रीड़ा आदि बहुत भोग-उपभोग किये । दीर्घकाल तक अपने राज्यपदका सुख भोग किया तथा अपने हृदयमें इष्टदेवका स्मरण करते हुए शुभ भावनासे युक्त मरण किया। वे ही यशबन्धुर राजा अनेक मदोन्मत्त गजोंके स्वामी कलिंगराज भगदत्त नरेशके मुझ पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुए। मेरा नाम सुदत्त रखा गया ओर में राजलक्ष्मीसे मण्डित होकर शत्रुबलसे अखण्ड राज्य करने लगा । एक बार मेरे नगररक्षकोंने एक चोरको पकड़ा और उसे दृढ़ता से बाँधकर मेरे सम्मुख उपस्थित किया और पूछा कि हे राजन्, इसका क्या किया जाये ? मैंने तत्काल तो यही कहा कि इसको अभी ले जाकर सतर्कतापूर्वक बन्दी - गृहमें रखा जाये। फिर जो द्विजवर अपराधोंके दण्डका निर्णय करनेके लिए नियुक्त थे उन्होंने आकर मेरे सम्मुख कहा कि इस चोरके पहले कान, नाक और हाथ काटे जायें, फिर पैर काटे जायें और फिर इसके सिरका छेदन किया जाये । इस प्रकार हे प्रभो, इस अपराधीको मृत्युदण्ड दिया जाये । इसपर मैंने पूछा कि यदि ऐसा दण्ड न दिया जाये तो किसे पाप लगेगा ?. इसपर उन्होंने कहा यदि यह मारा जाता है तो भी आपका ही पाप है, यदि छोड़ा जाता है तो भी वह न्यायसे तुम नरेशका ही पाप है । द्विजवरोंकी यह बात सुनकर मेरा चित्त विरक्त हो गया और मैंने अपने राज्यको एक जीर्णं तृणके समान त्याग दिया। तत्पश्चात् जिनेन्द्रकी शिक्षाको स्वीकार करके मुनिके रूपमें भ्रमण करता हुआ आपकी इस पुरी में पांच बार आ चुका हूँ । इस प्रकार अभी में यहोंपर अपने चतुर्विध संघ सहित तीव्र तप कर रहा हूँ और तृण व स्वर्णं तथा मित्र व शत्रुको समान दृष्टिसे देखता हूँ ||२७|| २८. यशोधका मन्त्री गुणसिन्धु हुआ गोवर्धन जिसने यशोमतिका संबोधन किया । मारिदत्तकी दीक्षा, भैरवका अनशनव्रत एवं क्षुल्लक और क्षुल्लिका निर्ग्रन्थ व आर्यिका बनना और देव होना उज्जैनी में जो राजा यशोधका गुणसिन्धु समस्त प्रजामें शान्ति रखनेवाला मन्त्री था, उसने अपने मन्त्रीपदपर तो अपने पुत्र नागदत्तको स्थापित कर दिया और उसी अपने पितृ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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