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________________ ४.२७.९] हिन्दी अनुवाद १४९ २६. महिष द्वारा मारा गया अश्व, गायका बछड़ा और फिर मारिदत्त राजाका पुत्र, भीमका जीव कुबड़ा, गन्धर्वश्रीका अमृतमति तथा राममंत्री व चन्द्रलेखाके जीव यशोमति और कुमुमावली हुए । उस मिथिलापुरी में जिनदत्त नामक सेठ रहते थे, जो जिनेन्द्र भगवान के चरणोंके भक्त थे, सम्यक्त्व रूपी रत्न तथा व्रत और शोलसे युक्त थे, तथा दया और दानके कार्य में सुदक्ष एवं दीर्घ - दृष्टि श्रावक थे । उस सेठकी गायके गर्भ में जाकर वह सुन्दर अश्वका जीव उत्पन्न हुआ, जो जल में प्रविष्ट होनेपर महिष द्वारा आहत होकर मरणको प्राप्त हुआ था । क्रमशः वह बछड़ा पुष्ट और पूर्णकाय हो गया । एक दिन जब वह मरणावस्थाको प्राप्त हुआ तब उस वणिक्पतिने उसके कानमें “अर्हन्त - अर्हन्त- अर्हन्त ।" इन अक्षरों वाला मन्त्र जाप किया, जिसे उस बछड़ेने संसारके भय और क्लेशके उपशमन भावसे ग्रहण किया। अब वही बछड़ा तुम्हारी कान्ता रुक्मिणी श्रेष्ठ गर्भ में आकर उत्पन्न हुआ है । हे राजन्, वह इस पृथ्वी मण्डलपर प्रतापधारी, शत्रुविनाशक तथा अपने कुलका सन्तोषकारक होगा । जो राममन्त्रीका पुत्र दुराचारी भीम था, वही पापिष्ठ और नीच कुबड़ा हुआ । जो अत्यन्त कुटिलचित्त गन्धर्वश्री थी, जिसने असत्प्रेम धारण कर अपने शरीरको पापकलंकसे काला व दुर्बल कर लिया था, उसने छिन्नगात्र होकर उस खल व निर्लज्ज अमृतमतिके रूप में जन्म लिया । उस पाप कन्याको राजा विमलवाहनने यशोधरको देकर पाणिग्रहण कराया। उसका वृत्तान्त, हे सुन्दरमुख मारिदत्त, तुम अभयरुचिके मुखसे सुन ही चुके हो। जो राममन्त्री विद्याधर पर्वत पर अपनी चन्द्रलेखा सहित चला गया था, उस सूर्यं समान तेजस्वी वीरने अणुव्रतों एवं ब्रह्मचर्यव्रतका परिपालन करके किसी विशेष शुभ धर्मके उदयसे यशोधरके पुत्र यशोमतिका जन्म धारण किया और अपने कुल रूपी कमलका भानु एवं यशसे शुभ्र प्रभावान् हुआ । जो राममन्त्रीकी पुत्री चन्द्रलेखा चिरकाल तक विद्याधरोंके कुलमें रही थी, वह कुसुमावली हुई और वही फिर तुम्हारी सहोदरी के रूपमें उत्पन्न हुई है । हे राजन्, मेरो बातको समझ लो, वह कभी चूकती नहीं । उस सुभटोंसे परिरक्षित तथा तीव्र खुरोंसे चपल राजतुरंगको ज्यों ही उस भैंसेने देखा, त्यों ही रोषसे प्रज्वलित होकर उसे जल पीते-पीते ही मार डाला था ||२६|| २७. यशोधकी पत्नी चन्द्रश्री और चन्द्रमतिका सपत्नी विरोध हो उनके अगले जन्म में महिष और अश्व वैरका कारण, मारिदत्तका पिता चित्रांगद दण्डमारी देवी हुआ, माता चित्रसेना हुई भैरवानन्द, यशोबंधुर हुए कलिंग नरेश भगदत्त और उनके पुत्र सुदत्त चोरके प्रसंगसे मुनि हुए । उस महिष और अश्वके वेरका क्या कारण था, हे गुण-सागर, बतलाइये और दया करके मेरे मन के संशयका अपहरण कीजिए । राजा मारिदत्तके इस प्रश्नका उत्तर देते हुए सुदत्त मुनिने कहा कि जिसने अपने पूर्व भव में कुपात्र दान किया था तथा एक तापसका तप करके अपनी कायाको क्षीण, किया था, वह जीव मरकर यशोघ राजाकी गुणशालिनी, चन्द्रके समान उज्ज्वल चन्द्रलक्ष्मी नामक पत्नी हुई । उसका चन्द्रमति के साथ सपत्नी विरोध था । अतएव उसी वैरको चित्त में धारण करते हुए वे अगले जन्म में महिष और तुरंगके रूपमें भी उसी वैरसे प्रभावित रहे और उसी कारण महिषने राजाके तुरंगका घात किया । पूर्वं जन्मके वैरके वश रोषाग्नि जीवों का अगले जन्म में भी अनुगमन करतो है और अवसर मिलनेपर बदला लेती है । वह घोड़ा मरकर सेठ के घर में बछड़ा हुआ । उसने अपने कानमें शुभ मन्त्र का जाप प्राप्त किया, जिससे उसका मन शुद्ध हो गया और अब वही जीव तुम्हारी भार्याके उदरमें विद्यमान है । वही तुम्हारे पश्चात् इस धरापर राज्य करेगा । पूर्वकालमें इसी राजपुर नगर में चित्रांगद नामक महाबलशाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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