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४. २५, २५ ] हिन्दी अनुवाद
१४७ हो करता रहा और विषय-सुख ही मानता रहा। राजा संवेगसे आतुर होकर अपने मनमें झूरने लगा। उसने निश्चय किया कि इस राज्यसे क्या पूर्ति होती है ? मैं तो दोक्षा लूँगा। उसने संसारको असारताको समझकर वैराग्य पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने राग और द्वेष इन दोनोंका भली भाँति दमन किया तथा तीव्र तपके द्वारा देहका तिरस्कार किया। इस प्रकार वह वैधव्य नरेश दिगम्बर मुनि हो गया।
_इधर वैधव्यका पुत्र गन्धर्वसेन, जो गुणोंसे शोभायमान तथा महाशत्रुओंका मर्दन करनेवाला था, वह राज्यपर बैठ गया। वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदाति, इस चतुरंगिणी सेनासे परिपूर्ण राजऋद्धिसे सहित अपने पिताके पदपर आसीन हुआ। और उधर उसको माता बिध्येश्वरी मासोपवासको व्रतधारिणी तथा भगवान्के आगमोंके भावको प्रकाशन करनेवाली विदुषी हो गयी। तब उस गंधर्वने अपने स्कंधावार सहित निर्मलचित्त होकर पवित्र धर्मयात्रा की, और अपने पिता ऋषिके पास पहुँच गया ॥२४॥ २५. वैधव्य मुनिका निदान-पूर्वक मरण, उनका तथा विध्येश्वरीका राजा यशोबंधुर
के पुत्र यशोघ और रानी चन्द्रमतिके रूपमें, जितशत्रुका यशोधरके
रूपमें और गन्धर्वसेनका मारिदत्तके रूपमें पुनर्जन्म गन्धर्वसेनने साधुरूप अपने पिताको संन्यासमें परिस्थित देखा। उधर पुत्रके स्कंधावारको देखकर साधुके मन में यह भाव उठ खड़ा हुआ कि इस मुनिव्रतके प्रभावसे यदि कोई सिद्धि हो तो . मुझे भी ऐसी ही ऋद्धि प्राप्त हो । इस प्रकार उस निर्गुणोने रत्नराशिको छोड़कर धानकी भूसोके ढेरको ग्रहण कर लिया। वह मरकर उज्जैनीमें आया और यशोबन्धुर राजाका पुत्र हुआ । उसका नाम यशोघ था, जिसके यशसे समस्त दिशाएँ पूरित हो गयीं। उसके भालपर राजपट बांधा गया। और जो विध्यश्री थी, वह भगवान्के चरणोंकी आराधना करके तथा उपवासों द्वारा अपने कायका शोषण करके स्नानपूर्वक मरकर वहाँ आयी और अजितांग राजाके घर पुत्री उत्पन्न हुई। चन्द्रमति नामकी उस अतिमन्द-बुद्धिका विवाह स्नेह पूर्वक राजा यशोधके साथ हुआ। उन के यशोधर नामक पत्र उत्पन्न हुआ जो अपने परिवारके पोषण हेतु कल्प वृक्ष था। यशोघने अपने पुत्र यशोधरको राज्य देकर व मोहका त्याग कर बारह प्रकारका तप किया। उन्होंने समाधियुक्त होकर संन्यास पूर्वक मरण किया और इस प्रकार यशोघ नरेश ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें जा पहुंचे। जो राजकन्या मंत्रीको पत्रवध हई थी. वह विलासकी तष्णासे अपने देवरपर अनुरक्त हो गयी। जब वह काम-विह्वल होकर उस देवरसे विनोद कर रही थी, तभी उस दुष्टको उसके पतिने देख लिया। यह देखकर वह स्त्रीको संगतिसे विरक्त हो गया और निर्जन वनमें जाकर मुनिवरोंके साथ हो गया। उसने जिन-दीक्षा धारण करके समस्त परिग्रहका त्याग कर दिया और वह जितशत्रु भलीभांति तपश्चरण करने लगा। मुनिके चरित्रका चिरकाल तक आचरण करके उसने अपना शरीर छोड़ा और चन्द्रमतिके गर्भ में आया। इस प्रकार वह जितशत्रु ही यशोघ का पुत्र यशोधर राजा हुआ। उसने अपनी माता द्वारा बतलाया गया अधर्म आचरण किया। अपने पुत्रके दुष्कृत्यकी बात सुनकर राममन्त्रीने ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर लिया। यह बात जब उनकी भार्याने सुनी कि उसकी पुत्रवधूने कैसा कुकर्म किया, तब उस चन्द्रलेखाने भी व्रत ग्रहण कर लिया। इस प्रकार दृढ़ ब्रह्मचर्यपूर्वक मरण कर वे दोनों विद्याधर गिरिमें उत्पन्न हुए। गंधर्वश्रीके उस अत्यन्त कुकर्मको सुनकर तथा स्त्रीके जन्मको निन्दा करके गन्धर्वसेनने दोक्षा तथा जिनमार्गकी परम शिक्षा ग्रहण कर ली और अनशनका निर्वाह करके निदान किया। उससे वह तुझ मारिदत्तके रूप में उत्पन्न हुआ है, तू जान ले।
मुनि सुदत्त कहते हैं-हे राजन् मारिदत्त, अब दूसरा कथानक सुन । मिथिलापरी नामको नगरी है, जो लोगोंसे भरी, रम्य तथा धन-कण व कनकसे परिपूर्ण है ॥२५॥
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