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________________ ४. २४. ११ ] हिन्दी अनुवाद १४५ युक्त गन्धगिरि नामक पर्वत है, जिसका अत्यन्त ऊँचा शिखर बहुत शोभायमान है। वह पर्वत गन्धर्वो के भवनों से परिशोभित तथा गन्धहरिणों एवं भ्रमरोंसे निरुद्ध है। उस पर्वतके समीप घरोंको श्रीसे आलिंगित एवं धर्म और धनसे अलंकृत गन्धवंपुर है। उस नगरमें नीतिमार्गका ज्ञाता वैधव्य नामक असाधारण राजा था। उसका शरीर त्याग और भोगके उपभोगोंसे अंकित था तथा शत्रुबलका विनाश मानो शरीर धारण करके आया था। उसको कोकिलके समान मधुर-भाषिणी पतिव्रता व सत्यशीला विन्ध्यश्री नामक भार्या थी, जैसे मानो साक्षात् इला हो । इसने एक पुत्रको जन्म दिया, जो कैसा था जैसे मानो रूपधारी मकरध्वज ही हो। किन्तु मकरध्वज तो अरूपी है, उसको रूप कैसे दिया जाय ? और वह प्रकट भी नहीं दिखाई देता। पर भी उसकी उपमा दी जाती है। इस कुमारका नाम गन्धर्वसेन प्रसिद्ध हआ। सब लोग .. उसकी स्तुति करते थे। उसो राजाके घर में कोमल और सुकुमार देहधारी तथा रूप-लक्षणों व कान्तिमें बहुत सुन्दर एक पुत्री भी थी। उसका नाम गन्धर्वश्री था, और वह साक्षात् श्री (लक्ष्मी) ही थी, जिसके अंगोंको विधाताने अत्यन्त सुन्दर रूपसे गढ़ा था। अपने पुत्रके साथ वह नरेश सम्मान पूर्वक सज्जनरूपी कमलोंका दिनेश्वर, दुर्जन रूपो गजोंके लिए दोघं जिह्वायुक्त सिंहके समान राज्यका सुख-भोग करता था ।।२३।। २४. वैधव्य राजाका मन्त्री राम व उसके पुत्र जितशत्रु और भीम, राजकन्याका जितशत्रुसे विवाह, राजाका आखेट, मृगोका वध, तथा मृगकी विह्वलता देख राजाका __ वैराग्य व मुनि दीक्षा, गन्धर्वसेनका राज्याभिषेक, विन्ध्यश्रीका __ मासोपवास और गन्धर्वसेनकी धर्मयात्रा उस राजाका रामनामक मन्त्री था, जो मन्त्र और नीतिमें महान्, तथा समुचित यन्त्रणा देने में अचूक था व दोषोंसे रहित, मानसे मुक्त व निश्शंक था। वह चन्द्रलेखा नामक भार्यासे अलंकृत था। उनके रूप और गुणोंका भाजन तथा शत्रुओंको जीतनेवाला जितशत्रु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका छोटा भाई हुआ भीम, जो भीमके समान ही भयंकर व अधम कर्म करनेवाला था । राजाने अपनी पुत्रीके लिए स्वयंवरका आयोजन किया और उसके लिए मंचकी रचना की गयी तथा देदीप्यमान तोरण बांधे गये । स्वयंवर मण्डपमें सुन्दर आभूषणों और घस्त्रोंसे युक्त राजपुत्रोंका सम्मेलन हुआ। वहां गन्धर्वश्रीका प्रवेश कराया गया, जो अपने हाथमें पुष्पमाला लिये हुई थी। उसने पूर्व स्नेहवश तत्काल उस मालाको जितशत्रुके गलेमें डाल दिया। शंख, तूर्य और भेरियोंके स्वर सहित उत्सव किया गया। विवाह सम्पन्न हुआ, और सब स्त्रीपुरुष सन्तुष्ट हुए। अब मन्त्रीके भवनमें वह कान्तियुक्त गन्धर्वश्री अपने प्रिय पतिके साथ रहने लगी। अब एक दिन राजा आखेटके लिए वनमें गया, जहां उसने एक मृगको देखा। उसने धनुष लेकर लक्ष्य-संधान किया और परप्राणविनाशक बाण छोड़ दिया। किन्तु बीचमें हरिणो आ गयी और मृग भयसे त्रस्त होकर दूर भाग गया। उस भीषण बाणसे कुरंगी बिंध गयी और उस प्राणपिशाच बाणसे छिन्न होकर भूमिपर गिर पड़ी। पारधियोंने उसे अपने कंधोंपर उठा लिया। इसी समय उस हरिणने घूमकर उसे देखा। चीत्कार करते हुए वह मृग सम्मुख दौड़ पड़ा, और क्षेचारा बेसुध हुआ करुणक्रन्दन करने लगा। वह चारों दिशाओंमें घूम-घूमकर अपनी कान्ताकी खोज करता था। वह ऐसा मोहसे बँधा था, किन्तु भार्याको नहीं देख पाता था। जो मोहसे अंघा है वह अपने मनमें और कुछ चिन्तन नहीं कर पाता, वह अपनी प्रियाका ही प्रतिक्षण मनमें . चिन्तन करता है। इस प्रकार चीत्कार करते हुए उसे राजा वैधव्यने देखा, जिससे वे गर्वरहित और करुणारससे पूरित हो गये। वे विचारने लगे-अरे, मैं विषादहीन व्याध बन गया। मैं इन्द्रियरसोंका लम्पट होकर मूढ़ हो गया। इतने समय तक मैंने कुछ भी नहीं जाना । मैं अधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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