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________________ ४. १६. २० ] हिन्दी अनुवाद १३५ तुम्हारे शरीरके सब अंग संयम-पालन करने में समर्थ न हो जावें । अभयरुचि राजा मारिदत्तसे कहते हैं कि हे राजन् ! मुनिके आदेशानुसार तब हमने क्षुल्लकवृत्ति धारण कर लो तथा अपने भूषण-वसन व धनका त्याग कर दिया। वस्त्रके नामसे केवल हमने श्वेत वस्त्रका टुकड़ा मात्र रखा। पहले हमने अपने मनको मूड़ा और तत्पश्चात् शिरको मूड़ा। हमने कौपीन धारण की तथा कमण्डल और भिक्षापात्र मात्र अपने पास रखा। इस प्रकार संसाररूपी समुद्रको पार करनेके लिए नौकाके समान हमने क्षुल्लकव्रत ग्रहण किया। उधर यशोमति राजाको प्रिय रानियाँ अपने मानको जीतकर संयमिनी हो गयीं और उन्हें देवों और मनुष्यों द्वारा सेवित गुरुदेव सुदत्तने उस नगरको प्रधान आर्यकाको सौंप दिया ॥१५।। १६. यतियोंको साधनाएँ, जिनसे युक्त सुदत्त मुनिके साथ विहार करते हुए राजपुर आगमन पूर्वोक्त घटनाके पश्चात् वे यतियोंके नायक प्रमादरहित हमारे सुदत्त नामक गुरु अपने संघके शुद्ध-हृदय मुनियोंके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करते हुए यहाँ आ पहुँचे। उनके संघके सभी मुनि जिन भगवान् द्वारा निरूपित तपश्चरण करने में अपने मनको लगाकर कामदेवकी व्याधिको विनष्ट करनेवाले थे। वे जब ध्यानमग्न होते हुए आसन जमाकर बैठते थे तब उनके शरीरपर चढ़कर सलबलाते हुए बड़े-बड़े सर्प अपनी लपलपाती हुई जिह्वासे उनके शरीरके पसीनेको चाटते थे । वे इष्ट-वियोग और अनिष्ट-योगके दुस्सह दुःखको धैर्यपूर्वक सहन करते थे। वे व्रतोपवासोंसे इतने दुर्बल हो गये थे, कि उनके शरीरके अस्थिबन्धन आपसमें कड़कड़ाने लगे थे। उनके उरस्थल और पीठको रीढ़को अस्थियां उभर आयो थों। उनके शरीर अत्यन्त प्रकट रूप धलिधूसरित हो रहे थे। वे घोर वीर मुनियोंकी तपस्यासे तप्त हो रहे थे। इन सबके फलस्वरूप उनके शरीर जगत्के साधारण जीवोंको भयंकर दिखाई दे रहे थे। हेमन्त ऋतुकी निशाओंसे उनके शरीरका चिकनापन सूख गया था और हिमपटलसे पट गया था। उन्होंने वर्षा ऋतुकी जलवृष्टिको अपने शरीरपर झेला था और ग्रीष्म ऋतुओंके सूर्यको किरणोंकी मारको सहा था। उन्होंने अष्ट प्रकारके स्पर्शमें समभाव स्थिर रखनेका अभ्यास किया था। वे अपनी तपश्चर्या द्वारा स्वर्ग और मोक्षके मार्गको दिखला रहे थे। उन्होंने अपने अन्तरंगमें मिथ्यात्व, माया और निदान इन शल्योंको विनष्ट कर दिया था। कामदेवको भी जीत लिया था तथा मदरूपी ग्रहोंको त्रस्त और विध्वस्त कर दिया था। वे मान और अपमानमें समभाव रखते थे, तथा ध्यानमें मग्न होते हुए अपने शरीरको तप्त करते रहते थे। विश्राम इतना ही करते थे कि वे कुछ समयके लिए धनुदण्ड या शवासनमें सीधे लेट जाते थे। वे निवास करते थे, कन्दराओंमें, श्मशानमें, या गुफाओंमें । वे स्थित होते थे तो गजशुण्ड (सीधे खड़े) या गोदुह ( उकडू आसन) से। वे आहार करते थे एक दिन या एक पक्ष या एक मासके अन्तरसे । उनके शरीरपर लम्बी रोमावलि उभर आयी थीं, वे जटा भी धारण किये थे और (मन, वचन और काय इन तीनोंकी क्रियाओंके निरोधरूप) त्रिमुण्डताको भी धारण किये थे। उनके शरीर पसीनेके मलसे विलिप्त थे। उनकी धोरता मेदिनी तथा मन्दर गिरिके समान थी। उनके मनसे रुद्र और आत्तं-ध्यान विदा हो चुके थे। मुनियोंके इस संघमें अनेक ऐसे भी थे जिन्होंने अपनो राज्य-लक्ष्मीको स्वयं अपने हाथसे त्याग दिया था। ऐसे इस मुनि-संघके साथ हम दोनों भी यहाँ आये। हम गुरुके चरण-कमलोंकी वन्दना करके भिक्षाके निमित्त निकले थे और जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण करते हुए मार्गमें चल रहे थे कि आपके किंकरोंने हमको बांध लिया और इस प्रकार शुभचर्या में प्रवृत्त हुए हमदोनों (क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं)को वे अपने हाथसे पकड़कर इस देवीके मन्दिरमें ले आये ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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