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प्रस्तावना
१. सम्पादन सामग्री
प्रस्तुत ग्रन्थका शुद्ध पाठ तैयार करते समय सम्पादकके सम्मुख जो छह-सात प्राचीन हस्त लिखित प्रतियाँ आयीं, उनमें से चारका पूर्णतासे उपयोग किया गया और उनके पाठ भेद भी अंकित किये गये । इन सभी प्रतियों का विस्तारसे वर्णन अँगरेजी प्रस्तावना में दिया गया है। अतः यहाँ संक्षेपमें उन मुख्य चार प्रतियों का परिचय काल-क्रमसे कराया जाता है जिससे उनके पाठभेदोंका मूल्यांकन किया जा सके ।
( १ ) प्रति T सबसे प्राचीन है । उसका लेखन-काल संवत् १३९० ( सन् १३३७ ई. ) आषाढ़ शुक्ल १३ रविवार है । इसे 'टी' संज्ञा इसलिए दी गयी क्योंकि यह प्रति बम्बईके तेरापंथी दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र - भाण्डारसे प्राप्त हुई थी ।
( २ ) प्रति P इसलिए कहलायी क्योंकि वह पूनाके डेकिन कॉलेजके ग्रन्थालयसे प्राप्त हुई । यह विक्रम संवत् २६१५ ( सन् १५५८ ई.) भाद्रपद शुक्ला ५ गुरुवार को लिखकर पूर्ण की गयी थी । लेखनस्थान तोड़गढ़ का भी इसमें उल्लेख है और मूलसंघ, नन्दि आम्नाय बलात्कारगण सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके भट्टारक पद्मनन्दि, श्रुतचन्द्र, जिनचन्द्र और प्रभाचन्द्रका भी । इसके वर्ण विन्यास में आदि कारका बहुलतासे प्रयोग उल्लेखनीय है ।
( ३ ) प्रति A अलवर - निवासी पण्डित वीणासुत गरीवा द्वारा संवत् १६२१ (सन् १५६४ ई. ) श्रावण वदि २ सोमवारको लिखकर पूर्ण की गयी। इसमें भी पूर्वोक्त प्रतिके ही समान मूलसंघ आदि कुन्दकुन्दान्वय एवं भट्टारक पद्मनन्दि, शुभचन्द, जिनचन्द, सिंहकीर्ति, धर्मकीर्ति तथा शीलभूषणके नामोंका उल्लेख आया है । इस प्रकार यह पूर्वोक्त भट्टारक परम्पराकी ही दूसरी शाखामें उक्त प्रतिसे छह वर्ष पश्चात् लिखी गयी थी । P प्रतिके समान इसमें भी आदि णकारका प्रायः लगातार प्रयोग किया गया है । ( ४ ) प्रति S कारंजाके सेनगण भण्डार की है । उसका लेखनकाल शक संवत् १६५६ ( सन् १७३४ ई. ) आसोज वदि १३ बुधवार है, और उसमें मूलसंघ सूरस्थगण दुष्कर गच्छ ॠषभसेन गणधर अन्वय के भट्टा. सोमसेन, जिनसेन, समन्तभद्र, छत्रसेन व नरेन्द्रसेनका नामोल्लेख किया गया है । आ. नरेद्रसेनने स्वयं अपने व दूसरोंके पठनार्थ इसे सूरतबन्दर के आदिनाथ चैत्यालय में लिखा था । प्रतिके पूर्ण होनेका समय संवत् १७९० का भी उल्लेख है । इस प्रतिके साथ एक और अधिक प्राचीन व जीर्ण-शीर्ण प्रति पायी गयी जिसकी वह प्रतिलिपि प्रतीत हुई। इसमें न और ण दोनों वर्णोंका प्रयोग पाया जाता है। जिसका कारण, डॉ. वैद्य के मतानुसार, उसका सूरत में लिखा जाना है ।
यद्यपि यहाँ डॉ. वैद्यने अपने उक्त कथनको खोलकर नहीं समझाया और न यही स्पष्ट किया कि
उक्त प्रतिमें 'ण' व 'न' के प्रयोगमें कोई व्यवस्थाका आभास मिलता है या नहीं । तथापि उन्होंने अन्यत्र (हैमव्याकरण व त्रिविक्रम व्याकरण में ) जो अपने विचार प्रकट किये हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परामें 'न' और 'ण' का व्यवस्थित रूपसे प्रयोग हुआ है, और वह व्यवस्था हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में सुस्पष्ट कर दी है । इसका प्रभाव गुजरात में विशेष रूप से पाया जाता है । और चूँकि सूरत गुजरात में है, अतः वहाँ लिखी गयी उक्त प्रतिमें हेमचन्द्र के नियमों का पालन किया जाना स्वाभाविक ही है । इस विषय पर मैं अपने विचार श्रीचन्द्रकृत कहा- कोसु ( प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद १९६९ ) की प्रस्तावना में विस्तारसे प्रकट कर चुका हूँ । अतः उनकी यहाँ पुनरुक्तिकी आवश्यकता नहीं है । किन्तु इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि भविष्य में सम्पादित किये जानेवाले प्राकृत व अपभ्रंश ग्रन्थों के संशोधनके समय
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