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________________ हिन्दी अनुवाद १२. लोक संस्थान-भावना यह लोक न तो कोई ब्रह्मा या रुद्र द्वारा उत्पन्न किया गया है, न धारण किया गया है, और न कालके द्वारा उसका क्षय ही होता है । यह त्रैलोक तो आकाशमें चौदह रज्जुप्रमाण एक स्कन्धके समान स्थित है । जिस त्रिभुवनका वर्द्धमान भगवान्ने वरण किया है, उसका प्रमाण चौदह रज्जु है । वह स्पर्शवान् है । वर्णवान् है, गन्धवान्, रूपवान् और शब्दवान् भी है । वह विशेष रसोंके सद्भावयुक्त भी है, ऐसा अनन्तज्ञानी भगवान्ने कहा है । इस समस्त अखण्डित लोकको एक महास्कन्ध कहा जाता है, उसके अर्द्धभागको जिनेन्द्र देश कहते हैं तथा आधेके भी आधे भागको प्रदेश कहते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर आधे-आधे विभाजन द्वारा जो अविभागी अंश शेष रहता है, वह परमाणु है । पुद्गलकी अपेक्षासे यह जीव परिणमनशील है तथा अपने चेतन स्वभावसे चैतन्यरूप है । आकाश में अवकाश पाकर जब वस्तु स्थित नहीं होती तब वह नभस्तलमें गमन करतो हुई दिखलाई पड़ती है । इस प्रकार मैंने गमनागमनरूप कार्यको तो देख लिया, किन्तु हे मुनिराज ! इसका कारण क्या है, यह बतलाइए। इसके उत्तर में उन महामुनिने मुझे मनोहर तथ्य बतलाया । उन्होंने कहा- हे पुत्र, सुन | पदार्थोंके परिणमनका कारण वर्तनालक्षणशील काल-द्रव्य है । जीवोंका कारण है। उनकी चेतना तथा अवकाशका कारण है आकाशका सद्भाव । एक स्थान में स्थित होने का कारण अधर्म और गमनका कारण है धर्मं । इस प्रकार उन गुरुदेवने निश्चलभावसे मुझे लोकवर्ती छहों द्रव्यों का स्वरूप समझाया । इन्हीं समस्त छह भावात्मक द्रव्यों के संघातका नाम लोक है, और नसे रहित ध्रुव अलोकाकाश है । जगत् में छायाका कारण उष्णता और प्रकाशका निवारण करनेवाला छत्र है, यह सब कोई भले प्रकार जान लेते हैं । किन्तु जो बात इन पार्थिव नेत्रोंसे दिखाई नहीं देती, किन्तु कार्यरूपमें परिणत होती हुई जानी जाती है, उसके कारणों का यह उपदेश दिया गया ||१२| ४. १३. १४ ] १३. छह द्रव्योंका स्वरूप पुद्गल द्रव्यका स्वभाव अवकाशको रोकने का है । वह परिणामी भो है और चेतनाका गृह भी है। वह लोकके अन्त भाग तक गमन करता है, तथा आकाश में स्थित होता हुआ कार्यरूप मेल कराता दिखाई देता है । इस संसारमें कारणके बिना कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता । भला, हाथ और हथिनी बिना कहीं हाथी को उत्पत्ति होती है ? इसी प्रकार बिना पुद्गलके रसादि गुण कहाँ रह सकते हैं ? बिना जीवके चेतन भाव कहाँ प्रकट हो सकता है ? मुनीन्द्र कहते हैं कि बिना आकाशके जोव और पुद्गल कहाँ अवकाश प्राप्त कर सकते हैं ? बिना कालके वस्तु कैसे परिवर्तित हो सकती है ? तथा धर्म और अधर्मके बिना पदार्थं गति व स्थिति कैसे प्राप्त कर सकता है ? इस प्रकार, हे महानुभाव, लोकवर्ती छह द्रव्योंके ये ही निश्चयतः छह स्वभाव हैं । कालके भेदसे ही स्कन्ध में परिणमन होता है, तथा सजीव शरीर जीवसे छिन्न भी हो जाता है । यदि लोकमें धर्म और अधर्म नामक द्रव्य न हों, तो हे बाबू, यह जीव और पुद्गल न कहीं जा सकते और न ठहर सकने। इन्हींके बलसे तो आकाश में वायु अपने पैर जमाती है, और त्रिजगत् के भीतर भुवनतलपर भ्रमण करती है । जो इस त्रैलोक्यकी आधार शक्ति है वह अलोकाकाश है, जिसमें न कोई वस्तु जाती है, न ठहरती है । जो चल और स्थिर के हेतुभूत लक्षणोंसे जाने जाते हैं, वे मूर्तिहीन धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, ऐसा समझो। इस प्रकार इन छह द्रव्योंके स्वरूपको पूर्ण आदरसे भावना करो तथा मोहरूपों निशाचरसे अपना भक्षण मत कराओ । परमेष्ठी, पितामह, सत्यसंघ तथा भव्यजनोंके बन्धुश्री जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करो । Jain Education International १३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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