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४.९.१३] हिन्दी अनुवाद
१२७ ८. अभयरुचिको दोक्षाग्रहणकी इच्छा, किन्तु मुनि द्वारा श्रावक
धर्मपालनका उपदेश तब मैंने कुललक्ष्मीसे मण्डित अपने मणिभवन व धनको तृणके समान छोड़ दिया और अपनी माताकी सपत्नीके पुत्र नये यशोधरको दे डाला। फिर मैं और दूसरे परलोक मार्गके समान उपशमधारिणी मेरी छोटी बहिन दोनों उसी उपवनमें गये, और हमने मुनियोंके स्वामीके चरणों में नमन किया। संसारके महान् भारसे भग्न होते हुए हम दोनों आचार्यके चरणोंसे लग गये और हमने उनसे प्रार्थना की कि हमें कृपाकर दीक्षा दीजिए। इसपर वीतराग मुनिने कहा-तुम अभी अत्यन्त दुबले-पतले बालक हो और कमलपत्रके समान कोमल हो। इसके विपरीत तपस्या करनेका विधि-विधान बहुत कठिन होता है। इसलिए हे पुत्र ! बालक-बालिकाओंके लिए वह ग्रहण करने योग्य नहीं । तुम तो उत्तम श्रावक बनकर गुरुकी सेवा करते हुए आगम पदोंका शिक्षण प्राप्त करो। विपरीत सिद्धान्तोंको सुन-सुनकर जो शठताएं आ गयो हैं, जो लौकिक और वैदिक मूढ़ताएं उत्पन्न हो गयी हैं, उनका तथा सद्धर्ममें आशंका, आकांक्षा, जुगुप्सा आदि दोषोंका विनाश करो। कभी भी कुत्सित वेषधारी साधुओंके चारित्रकी स्तुति मत करो। धैर्यके विनष्ट करनेवाले मान और परिग्रहका ग्रहण मत करो। अपने अन्तरंगको ऐसी रक्षा करो जिससे वह सूविशद्ध बना रहे। अपने धमको प्रभावना करते हए उसे हो नमन करो और जो धमके मागंसे भ्रष्ट हो रहे हों, उन्हें धर्मके मार्गमें स्थिर करो। अपने मनमें उठनेवाले हर्ष और रोषको संकुचित करो। सम्यक्दर्शनके जो दोष कहे गये हैं, उन्हें ग्रहण मत करो। तुम स्नेह करो चतुर्विध संघ से। और उसीके साथ वात्सल्यभाव, वैयावत्त और विनयका व्यवहार करो। विशद्ध सम्यकदर्शनकी प्राप्ति होती है। इन गुणोंसे रहित साधककी सम्यक्ष्टि सहसा क्षीण हो जाती है। तो तुम पहले विपरीत धर्मदृष्टिके विनाशक इसी सम्यकदर्शनको अपने मनमें स्थिरतासे धारण करो। तत्पश्चात् तुम सेकड़ों जन्मोंके पापोंका हरण करनेवाले बाह्य और आभ्यन्तर दुर्धर तप को धारण करना ।।८।।
९. सम्यकदर्शन व अहिंसादि श्रावकोचित व्रतोंका उपदेश मनिराजने कहा, जिस प्रकार कोई राजा सेनाके बिना रथोंके ऊपर उड़ती हुई ध्वजापताकाओंसे उज्ज्वल रण नहीं कर सकता, उसी प्रकार सम्यक्दर्शनके बिना दारुण तपश्चरण कैसे किया जा सकता है ? किसीको कर्णकट बात नहीं कहना चाहिए। सत्यकी जड अहिंसा है. अतएव अहिंसाव्रतको धारण करना चाहिए। तुम जीवमात्रसे मैत्रीभावरूप सामायिक व्रतका पालन करो तथा देवभक्ति, गुरुभक्ति और उपाध्यायभक्ति एवं सिद्धों और साधुओंकी वन्दनाभक्तिका पालन करो। उपवास धारण करो अथवा मर्यादित भोजन करते हुए अन्य भोज्यवस्तुओंका त्याग करो। सचित्त जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि तथा हरी वस्तुओं आदिका विध्वंस मत करो। रात्रिभोजनका त्याग करो, चाहे वह मिष्ठान्न ही हो। किसी स्त्री व पुरुषको इस दृष्टिसे मत देखो कि वह तुम्हें अधिक इष्ट है। विशुद्ध ब्रह्मचर्यको दृढ़तासे धारण करो तथा कोई काम ऐसा मत करो जिससे लोगोंके साथ वैर उत्पन्न हो। समस्त परिग्रहके त्यागका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करो। यदि मनमें अणुमात्र भी पापभाव उत्पन्न हो जाये तो उसे मिथ्या ठहराते हुए मनको शुद्ध करो। निर्दिष्ट आहारका त्याग करते हुए भिक्षा चार करो और इनके द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान अर्थात कषायोपशमन भावपर आरूढ होनेका प्रयत्न करो। किसी जीवको बांधना या ताडना भी हिंसा ही गिना जाता है। अस्त्र-शस्त्रादि प्रहरणोंको धारण करना भी रौद्रभाव कहा गया है। तृण, काष्ठ आदिका संचय भी अनिष्ट उत्पादक है । उससे तथा किसीके इष्ट जीव या वस्तुका वियोग करा देनेसे आर्त व रौद्रध्यान उत्पन्न होता है । अतएव इस पापस्थानको छोड़कर नित्य ही धर्म
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