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________________ ४. ७.१७ ] हिन्दी अनुवाद १२५ विशाल गुणशाली सेठने कहा - भला अभी आपको तपस्या करनेका कौन-सा काम है ? राजाको पहले समस्त विचार-विद्या ( आन्वीक्षिकी ) की जानकारी अर्जित करनी चाहिए; फिर लोगों में धर्म और अधर्मं (त्री ) की विधिको समझना चाहिए, फिर तृतीय विद्या वार्ताका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिसमें अर्थ और अनर्थकी प्रवृत्ति बतलायी गयी है और फिर चौथी विद्या निश्चय पूर्व दण्डनीति कही गयी है, जिसके अनुसार लोक में नीति और अनीतिका व्यवहार समझा जाता है । इन्हीं चार विद्याओंके द्वारा जगत् में योग ( अर्जन ) और क्षेम ( सुरक्षा ) का प्रचार होता है और इन्हींसे धर्म, अर्थं और काम सम्बन्धी सुख प्राप्त होता है । जब लोक इन गुणोंमें प्रतिष्ठित होता है, तभी वह निरन्तर सम्पूर्ण भोगोंको भोगता हुआ जीता है । दण्डनीतिको धारण करते हुए ही राजा लोककी रक्षा कर सकता है तथा उक्त चारों विद्याएँ ही राजव्यवहार के दोषोंका अपहरण करती हैं । राजाके बिना जगत् में अपराधके लिए दण्ड कोन दे सकता है ? बिना दण्ड के सामान्य जन घोर कर्म करने लगते हैं । वे पराये धन और परायी स्त्रीके अपहरणकी कामना करने लगते हैं और धर्मके नामको भी सहन नहीं करते । क्षमा, दम, राम, सत्य और शौच तथा जीवदयासे युक्त धर्म तो श्रामण्यधारी मुनियोंका है, किन्तु चारों वर्णोंका धर्म तो वही है जिसका मैंने वर्णन किया ॥६॥ ७. राजकुमार अभयरुचिका राज्याभिषेक तथा राजा यशोमतिको प्रव्रज्या इस जिनेन्द्र भाषित धर्मका इन्द्र, फणीन्द्र, चन्द्र, विद्याधर और जन-समूह द्वारा सम्मान किया गया है । किन्तु राजशासनकी व्यवस्था न होनेपर वह नष्ट हो जाता है । कल्याणमित्रका यह उपदेश सुनकर मैंने मायाभावसे पिता द्वारा दिये गये राज्यको दोषपूर्ण जानते हुए भी स्वीकार कर लिया । वह राज्य अभिषेक सम्बन्धी जलके द्वारा मानो खलबला रहा था; विविध रत्नावलियों द्वारा प्रज्वलित हो रहा था; देवांग वस्त्ररूपी पल्लवोंसे लपलपा रहा था; कामिनियोंके हस्तगत चामरों द्वारा चलबल हो रहा था, पालिध्वजोंके रूपमें ऊपर फहरा रहा था; विशाल उन्मत्त हाथियोंके रूपमें गुलगुला रहा था; मनके समान तीव्रगामी तुरंगोंके रूपमें हिनहिना रहा था; कस्तूरीकी गन्धसे महक रहा था; कर्पूरकी सुगन्धसे आकर्षक हुए भ्रमरोंके रूप पुंजीभूत हो रहा था तथा भूपालवृन्द द्वारा सेवित होनेसे महान् प्रतीत हो रहा था । यशोमति राजा मुझे राज्य देकर तथा मुझसे पूछकर गृहसे चले गये और उन्होंने तप धारण कर लिया । उनके साथ अन्तःपुरकी स्त्रियोंने भी व्रत ग्रहण किया। उन्होंने अपने कंकण और नूपुर उतारकर अलग कर दिये। अपने घुँघराले केशोंको उखाड़कर फेंक दिया, जैसे मानो वे कृष्ण और नोललेश्याओं के विशेष रूप हों । राजाने अपने वस्त्र आभूषण भी तुरन्त त्याग दिये । सारांश यह कि उन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया । उन्होंने ऐसा घोर तपश्चरण प्रारम्भ किया जिससे जन्ममरण आदि व्याधियाँ दूर हो जाती हैं । राग और द्वेष इन दोनोंको तथा मान और अपमानको छोड़कर अपने कर्मबन्धनको काटते हुए वे निर्जन वनमें या श्मशान में निवास करते और एक-एक मासके पश्चात् आहार ग्रहण करते । उन्होंने गृहस्थी के मोहको दूर कर तथा मनकी गतिका अवरोध करके अपने तीनों शल्यों ( मिथ्यात्व, माया और निदान ) को खण्डित कर दिया । पिताजीने अपनी प्रव्रज्याके द्वारा गुण रूपी मणियोंसे अपनेको आभूषित किया तथा पाँचों इन्द्रियों को दण्डित किया ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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