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________________ ४. ४. ३ ] हिन्दी अनुवाद १२१ रानियोंमें भी परस्पर वार्ता चल पड़ी। कोई कहती है, प्रियके राजतिलकका उच्छेद हो गया, हाय. हाय, अब पत्रछेद अर्थात् शृगार-रचना करनेसे क्या लाभ ? कोई वधू कहती-अरे, चित्र काहेको लिख रही है ? प्रभु तो अब कामसे विरक्त-चित्त हो गये हैं। कोई कहती है-अब मुखमण्डनसे क्या लाभ, जब राजा तपमण्डनसे रंजित हो गये हैं ? कोई वधू अपने पटहका त्याग करती हुई कहती है कि अब तो विधाता एक दूसरा ही वाद्य बजाने लगा है। कोई अपने केश संभालते-संभालते रुक गयी और बोल उठी-लो, अब तो इन केशोंको उखाड़ फेंकनेको विधिका अवसर आ गया। एक प्रिया जो अपने कपोलोंपर पत्रोंका लेखन कर रही थी, कह उठी-हा देव, यह कैसी विपरीत बात प्राप्त हुई ? जो मोतियोंकी माला गूंथ रही थी, वह अब डोरेमें मोती गूंथना छोड़कर उठ खड़ी हुई और उसने अपना मन निश्चलभावसे मुनिके गुणोंपर लगाया। कोई कहती है, अरी, अब अपने नखों त कर, पति तो परम दीक्षा लेने जा रहा है। किसीने अपने प्रियकी बात सुनी तो वह तत्काल इतनी क्षीण हो गयी कि उसकी चोली उसके शरीरमें अब सटकर नहीं बैठी अर्थात् वह दुर्बलताके कारण ढीली हो गयी। इस प्रकार नाना प्रकारको चर्चा करती हई अपने प्रियके विरहके भयसे कांपती हुई, पसीनेके जलसे भीगती हुई, अपनी कटिमेखलाको दूर करती हुई, अपने नेत्रोंके अंजनके अश्रुओंके मिश्रणसे मलिन मुख होती हई, मणिमयी रशनाको किकिणियोंसे मुखरित होती हई. नपुरको झंकारसे मनोहर वे अपने उन्नत सघन और पीन पयोधरोंसे यक्त समस्त अन्तःपरकी रानियां वहीं जा पहुंची, जहाँ राजा उपस्थित थे। उन नखको प्रभासे सुन्दर मणियोंको जीतनेवाली चंचल हारमणियोंसे युक्त रमणियोंने राजासे प्रार्थना को कि इस राज्यश्रीके सुखका अपहरण करनेवाले तपश्चरण द्वारा देवने तुम्हें धोखेमें डाला है और तुम्हारी विडम्बना की है ॥२॥ ३. राजकुमार और कुमारीका पिताके पास आगमन राजासे उनकी रानियोंने कहा, हम अप्सराएं हैं, आप देवेन्द्र हैं और यह प्रासादतल विमान हैं; इस प्रकार प्रियाओंका संयोग ही तो स्वर्ग है । और क्या स्वर्गके सिरपर कोई टेढ़ा सींग होता है ? इस प्रकार उन विलासकारिणी तथा आलिंगनमें चतुर राजाकी प्रिय कुलपुत्री स्त्रियोंने बहुत कुछ प्रलाप किया; किन्तु राजाने उनके प्रति कोई इच्छा प्रकट नहीं की और उन सबका तिरस्कार कर दिया। तत्पश्चात् राजपुत्र और राजकुमारी राजासे मिलनेको चल पड़े। उनके साथ नगाड़ेकी ध्वनिपर चलनेवाले बड़े-बड़े गज भी थे, हिनहिनाते हुए सुन्दर श्वेत घोड़े भी थे; नंगी तेज तलवारें लिये हए किंकर भी थे तथा मनके समान चपल वेगसे चलनेवाले घोड़ोंसे चालित उत्तम रथ भी थे। वे अपने सहचरोंसे घिरे हुए थे। उनपर चंचल चॅवर ढुरे जा रहे थे तथा छत्रावलीसे नभस्तल आच्छादित हो रहा था। वे दोनों अपने शिविकायान (पालकी) द्वारा उस नन्दनवनमें पहुँच गये जहाँ घासका नीला गलीचा सा बिछा था। वहां उन दोनोंने देखा कि उनके नरेन्द्र पिता बिना किसी सेवकके, बिना ध्वजा और चंवरके पृथ्वीतलपर हो चारित्ररूपी रत्नोंको प्राप्त करनेके लिए अपने हाथ ऊपर किये ऐसे बैठे हैं जैसे मानो स्वयं श्रामण्य (श्रमणभाव ) नररूपमें उपस्थित हुआ हो ॥३॥ ४. राजकुमार, कुमारी तथा रानी कुसुमावलीको शोकावस्था वहाँ मुनिराजके मुखकमलसे निकली ध्वनिमें वही हमारे पूर्वजन्मोंकी कथा कही गयी और उसे हम दोनोंने वहाँ पुनः भले प्रकार स्मरण किया। अपने पूर्वभवोंका स्मरणकर हम दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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