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________________ प्राक्कथन (द्वितीय संस्करण ) प्रस्तुत ग्रन्थका प्रथम संस्करण सन् १९३१ ई. में कारंजा जैन सिरीजके प्रथम ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित हआ था। इसका विशेष विवरण उक्त प्रकाशनके प्राक्कथन आदिमें सम्मिलित है जो उनके अविकल रूपमें इस संस्करणके साथ भी प्रकाशित किये जा रहे है। उक्त प्रकाशनसे लेकर विगत चालीस वर्षों में अपभ्रंश ग्रन्थोंके सम्पादन-प्रकाशनमें विशेष प्रगति हई है। महाकवि पुष्पदन्तकी शेष दो रचनाएँ अर्थात् 'णायकुमारचरिउ' और 'महापुराण' भी प्रकाशित हो चुके हैं। इन ग्रन्थोंमें प्रयुक्त देश्य ( देशज) शब्दोंका विशेष अध्ययन भी किया जा चुका है। ( देखिए "A critical study of the Desya and rare words from Puspadanta's Mahāpurāņa and his other Apabhramsa works " by Smt. R. N. Shriyan, Ahmedabad, 1969. ) वर्तमान ग्रन्थोंको अनेक विश्वविद्यालयोंने अपने पाठ्यक्रमोंमें भी स्थान दिया है। इधर अनेक वर्षोंसे इसकी प्रतियाँ भी दुर्लभ हो गयी है। पाठकोंकी ओर से यह भी माँग हुई है कि यह ग्रन्थ पुनः प्रकाशित किया जाये, और वह भी सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद सहित । ग्रन्थके प्रथम संस्करणके सम्पादक तथा मेरे ज्येष्ठ सुहृद् डॉ. परशुराम लक्ष्मण वैद्य, अब अस्सी वर्षकी आयु प्राप्त कर चुके हैं। उनकी भी यह इच्छा हुई, तथा मेरे सहयोगी प्रिय मित्र डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येने भी इसके लिए मुझसे विशेष आग्रह किया। इन दोनोंकी इच्छा व आग्रहको, मेरी अपनी कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी कठिनाइयाँ होने पर भी, मैं टाल नहीं सका। इसलिए मुझे इस कार्यको अपने हाथमें लेना ही पड़ा। पहले विचार यह हआ था कि प्रथम संस्करणके पाठ व शब्दकोश आदिको जैसाका तैसा रखते हए केवल उनके साथ हिन्दी अनुवाद और जोड़ दिया जाये। किन्तु ज्यों ही मैंने ग्रन्थका अनुवाद प्रारम्भ किया, त्यों ही कुछ पाठ-संशोधनकी भी आवश्यकता प्रतीत हुई। अर्थ व सन्दर्भकी दृष्टि से कहीं-कहीं पाठान्तरके रूपमें दिया हुआ पाठ अधिक उपयुक्त अँचा। कहीं पृथक् पदोंको जोड़ना और कहीं जुड़े शब्दोंको पृथक् करना भी आवश्यक जान पड़ा। कुछ स्थानोंपर छन्दकी दृष्टिसे मात्रादि घटाने-बढ़ाने की भी आवश्यकता पड़ी। प्रथम संस्करणके शब्द-कोषके कुछ महत्त्वपूर्ण शब्द छूट गये जान पड़े, जिनका यथास्थान समावेश करना भी आवश्यक हो गया। इस शब्द-कोषमें मूलपाठकी सन्धि, कडवक आदिका संकेत प्रायः नहीं किया गया है, जिसके कारण उनको उनके सन्दर्भमें मिलाकर देखना दुष्कर था। अतएव इस दृष्टिसे शब्द-कोषमें भी कुछ सुधार करनेकी आवश्यकता जान पड़ी। प्रायः सर्व शब्दोंके लिए कमसे कम एक सन्दर्भ दिया गया है ( सन्धि, कडवक और पंक्ति )। इस कार्यमें प्रो. बी. डी. पाटील, कोल्हापुर, से हमें सहायता मिली है। प्राकृत और अपभ्रंशमें संस्कृतकी उच्चारण विधि की अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ 'ए' और 'ओ' वर्ण तथा उनकी मात्राएँ सर्वत्र दीर्घ व गुरु ही नहीं होतीं। वे हृस्व व लघु भी होते हैं । किन्तु नागरी वर्णमाला में इनके पृथक् संकेत नहीं पाये जाते । अतएव इधर कुछ कालसे इनको पृथक् निर्दिष्ट करनेका भी उपाय निकाल लिया गया है । वह है इन मात्राओं व 'ए' वर्णको उलटा कर (?) अंकित करना । अतएव प्रस्तुत संस्करणको पूर्णतः आधुनिकतम बनानेके लिए इनका समावेश करना भी उचित जॅचा। इन सब आवश्यकताओंकी पूर्ति हेतु प्रस्तुत संस्करणमें निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जायेंगी। १. मूलपाठका पुनः शोधन व उसका कहीं-कहीं पाठान्तरोंसे विपरिवर्तन । जैसे 'आणंदिउचउ'के स्थानपर 'आणंदियचउ' (१,१,१०) 'सीयलिय'के स्थानपर 'सीयल' (१,२,५) व 'परदुम-दलण'के स्थानपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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