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________________ ३. ३६.१२ ] हिन्दी अनुवाद १११ दल चल रहा था । राजा जब वन में पहुँचे, तब उन्होंने एक वृक्षके नीचे आसन लगाये हुए उग्र तपस्याके अभ्याससे खिन्न कामदेवके विनाशक पूज्य सुदत्त मुनिको ध्यानारूढ़ देखा । राजा ने विचारा - यह कार्यसिद्धिका विनाश करनेवाला अपशकुन कहाँसे आ गया ? किन्तु अब यह क्षपणक यहाँ से बाहर मेरे बिना मारे कहाँ जायेगा ? ||३४|| ३५. राजा यशोमतिकी सुदत्त मुनिसे भेंट राजाने इस प्रकार मनमें मुनिको मारनेका विचार करके दुर्जनतापूर्वक अपना एक कुत्ता मुनिके ऊपर छोड़ा, जैसे मानो वह चंचल विद्युत्पुरंज हो अथवा मन वा पवनकी गति से चलनेवाला पिशाच हो । उसी कुत्तेके पीछे शिकारियोंने वज्र के समान नखोंवाले शूकरोंको भी छोड़ दिया । वे इस प्रकार भूँकते थे और उन कुत्तोंके ऐसे तीक्ष्ण दाँत थे जैसे मानो वे राजाके साक्षात् पशु-आखेटरूपी व्यसन ही हों। उनकी पूँछें ऐसी टेढ़ी थीं कि वे कभी सीधी होती ही नहीं थीं, जैसे मानो वे पापिष्ठ जीवोंके चित्र हों। उनकी जिह्वाएं मानो हिंसारूपी वृक्षके पल्लव थीं और उस वृक्ष के नये-नये अंकुर थे उन कुत्तों के नख । वे कुत्ते पाप-पु जोंके समान दिखाई देते थे और पाधि (आखेटक ) तो उनसे भी निकृष्ट थे । वनमें जहाँ उन्होंने कुत्तोंके द्वारा इसे गये पशुओंको देखा, तहाँ उन्होंने कुत्तोंके उच्छिष्टका भी भक्षण किया । अन्ततः कुत्ते वे ही तो होते हैं जो मृगका विदारण करते हैं और क्या कुत्तोंके मस्तकपर कोई सींग होते हैं ? वे प्रत्यंचायुक्त हँसते थे और खिल-खिलाते थे, क्रोध करते, मारते और खाते थे । किन्तु उन मुनीश्वर के तपके प्रभाव से वे सभी निश्शस्त्र होकर शिर झुकाकर खड़े हो गये । कुत्तोंको इस प्रकार शान्त देखकर राजा स्वयं अपने हाथमें खड्ग लेकर मुनिको मारने दौड़ा। उसी समय कोई एक वणीन्द्र बोल उठा और वह कल्याणमित्र बनकर राजा और मुनिके बीच में जा खड़ा हुआ। उस वणिग्वरने हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभु, राजा तो लोगोंकी आपत्तिका अपहरण करनेवाला होता है, किन्तु यदि वही राजा व्रतधारी श्रेष्ठ मुनियोंका घात करने लगे, तो फिर इस विन्ध्यवनमें शवर क्या करेगा ? ||३५|| ३६. राजा और वणिक्का संवाद उस वणिक्ने कहा- आपको तो इन पवन, वरुण व वैवस्वत द्वारा प्रशंसित एवं विषयोंसे विरक्त मुनिराजको प्रणाम करना चाहिए। यह सुनकर राजा क्रोधसे लाल होकर बोला – अरे, यह तुमने क्या कहा ? जो यह नग्न, अमंगल, कार्यविनाशक मुनि मेरे द्वारा मृत्युदण्ड दिये जाने योग्य है, उसके में चरणोंमें गिरू और वेदोंके ज्ञाता द्विजवरोंमें रुचि न रखूं ? इसपर वणिक् बोला—अहो, मनको वशमें करनेवाला रुद्र भी तो नग्न और धूलि धूसरित शरीर होता है । हाथ में कटा लिये हुए क्षेत्रपाल भी नग्न होता है । रुनझुन ध्वनियुक्त नूपुरोंको पैरों में धारण करती हुई लोकी करधनी पहने हुए खरवाहिनी मुण्डमाला - धारिणी योगिनी भी नग्न रहती है । ये सभी भयंकर होते हैं, मनुष्य के मांसका भक्षण करते हैं और श्मशान में रहते हैं । वे अपने हाथों में कंकाल व कपाल लिये रहते हैं । कहिए, ये सब हिंसा के घर क्या मंगलरूप कहे जा सकते हैं ? ये साधु तो tath प्रति दयावान् हैं, शुद्ध और निर्मलचित्त हैं, तब इन पूज्य साधुको अमंगल कैसे कहा जा सकता है ? परमहंस नग्न होकर ही परमात्माका ध्यान करता है । नग्न स्त्री-पुरुषों द्वारा ही लोग नग्नरूपमें ही उत्पन्न होते हैं । रत्नत्रयरूप भूषणधारी मुनि भी नग्न होकर शुभ भावनाएँ माता है, तो भी लोग मुनीन्द्रको दोषी ठहराते हैं। इसके अतिरिक्त आपने मुनियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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