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________________ ३. ३४. १३] हिन्दी अनुवाद १०९ यह देख, तेरे समीप ही जो यह कुक्कुटोंका जोड़ा है वह किस प्रकार भव-भवान्तर भ्रमण करता आ रहा है। यदि तू अपने हिंसामय कुलधर्मको चलाने में लगा रहा, तो तू भी इस कुक्कुट युगल समान संसारमें भ्रमण करेगा। इसपर सुभटने मुनिराजसे कहा कि मुझे इस कुक्कुट-युगलका पुराना कथानक कहकर सुनाइए। तब मुनीश्वरने कहा कि ये दोनों इसी नगरमें राजलक्ष्मीसे सम्पन्न माता और पुत्र थे। अत्यन्त कुसंगसे इनको हिंसामय कठोरभाव उत्पन्न हो गया और इन्होंने एक कृत्रिम कुक्कुटको मारकर अपनो कुलदेवीके लिए बलि चढ़ा दिया ॥३२।। ३३. कुक्कुट-युगलके पूर्व जन्मान्तर उस कृत्रिम कुक्कुटको मारनेके पापसे अपने उस राजवैभव तथा मनुष्य शरीरका विनाश कर ये अत्यन्त भयभीत हुए। मरकर दोनों क्षुधाके वशीभूत मयूर और श्वान हुए और तत्पश्चात् नेवला और भुजंग। उसके पश्चात् वे मत्स्य और सिंसुमारको योनिमें उत्पन्न हुए और वहाँसे निकलकर वे अज और पुनः अज और महिषको योनि में आये एवं वहाँसे निकलकर अब ये पुनः इस नये जन्ममें लाल शिखरवाले कुक्कुट मिथुनके रूपमें उत्पन्न हुए हैं, जिन्हें तू देख रहा है। तब उस भटने अपना कुलधर्म छोड़कर मुनिको प्रणाम किया और श्रावकका व्रत ग्रहण कर लिया। राजकुमार राजा मारिदत्तसे कहते हैं कि हम दोनोंने भी मुनि द्वारा कहे गये अपने पूर्वजन्मोंके वृत्तान्तको सुन लिया और हमने अपने मन में जीवदयामय धर्मको ग्रहण कर लिया। उस अत्यन्त अपूर्वलाभसे सन्तुष्ट होकर हमने उत्कण्ठापूर्वक अपना मधुर आलाप कर दिया। हमारे उस शब्दको सुनकर यशोमति नरेश, जो उस समय अपनी रानीके साथ उत्साहपूर्वक क्रीड़ा कर रहे थे, अपने धनुषको प्रत्यंचापर बाण चढ़ाकर झटसे बोले-हे देवि, देखो, हमारा धनुर्वेदका पूर्णज्ञान, हम तुम्हें शब्द- वेध लगाकर दिखलाते हैं। यह कहकर राजाने अपना बाण छोड़ दिया, जिससे हमारे शरीर बिंध गये और हम दोनों पिंजड़ेमें बन्द होते हुए भी अपने समस्त दश प्रकारके प्राणोंसे मुक्त हो गये ॥३३॥ ३४. अभयरुचि और अमृतमतीका जन्म राजाके उस बाणसे विद्ध होकर हम दोनों मर गये और मेरे पुत्रकी पत्नी कुसुमावलीके रक्त और कृमिके निधान गर्भ में उसो समय जाकर उत्पन्न हुए। इस प्रकार पापोंकी परम्परासे अत्यन्त आहत होते हुए मुझे मेरी पुत्रवधूने जन्म दिया और जो प्राचीन कालकी हमारी माता पूज्य परमेश्वरी चन्द्रमती थो वह अपने कर्मसे जन्म-जन्मान्तरका बलिदान होती हुई अपने ही पौत्र द्वारा पौत्रवधूसे उत्पन्न हुई। इस प्रकार हन दोनों जबसे युगल रूपमें गर्भमें प्रविष्ट हुए तभीसे रानी कुसुमावलीको मांसाहारको रुचि नहीं रही। नव मासके अनन्तर उसने कमारकमारीके यगलको जन्म दिया। हमारा यह जन्म विशद्ध शभयोगमें हआ। पिताने माताके साथ विचार करके मुझे अभयरुचि नामसे पुकारा। मेरी भगिनीको अमृतमती नाम दिया गया। वह ऐसो सुन्दर थी कि जैसे कामदेवकी शक्ति ही हो। और वह इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे चन्द्रकी कान्ति । माता-पिताके नेत्रोंको आनन्द प्रदान करते हुए धीरे-धीरे हम दोनों समस्त कलाओं में निपुण हो गये। मुझे युवराजपट्ट बांधा जायेगा और तब समस्त लोग आमोद पूर्वक राजभवनमें भोजन करेंगे, इस कार्य हेतु राजा यशोमति मृगोंका मांस प्राप्त करने के लिए आखेट करने प्रस्थित हुए। उनके आगे-आगे नगाड़ेका शब्द हो रहा था और उसके द्वारा एकत्र हुए पाँच सौ कुत्तोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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