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________________ ३. ३२. ४] हिन्दी अनुवाद १०७ गृहस्थ धर्मका ग्रहण कर उसका परिपालन कर। वाणी मिथ्यात्वसे रहित होना चाहिए। जीवोंपर दया करना चाहिए । पराये धन और परायी स्त्रीसे बचना चाहिए। रात्रि-भोजन नहीं करना चाहिए और धन-सम्पत्ति रूप परिग्रह भी सीमित होना चाहिए। मन में लोभरूपी महाग्रहको स्थान नहीं देना चाहिए। मधु, मदिरा, मांस तथा पांच उदुम्बर फल (वट, पीपल, पाकर, ऊमर या गूलर और कठूमर ) इनको कभी नहीं चखना चाहिए। ये पापरूपो मैल उत्पन्न करते हैं। दशों दिशाओं में प्रत्याख्यान अर्थात् गमनागमनको सीमा कर लेना चाहिए और इसी प्रकार भोगों और उपभोगोंका संख्यान अर्थात् निश्चित मात्रा और संख्यामें खानेका व्रत भी पालना चाहिए। मनको वशमें रखना चाहिए और शास्त्र-श्रवण नियमसे करना चाहिए। वर्षाकालमें गमनागमन नहीं करना चाहिए। जीव ही जीवका आहार है, ऐसा धारणा रखकर जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए, तथा हिंसाके साधन अपने अस्त्र-शस्त्र किसी दूसरेको नहीं देना चाहिए। अष्टमी और चतुर्दशीके दिन स्त्रीका स्पर्श न करे, दुधार गायका स्तन न छुए तथा एक स्थानमें रहकर उपवास करे या एक बार मात्र निर्विकार भोजन करे ॥३०॥ ३१. व्रतोंका परिपालन पर्वके दिन यदि उपवास न करके एक बार भोजन किया जाये, तो धर्मध्यानका अभ्यास करते हुए कांजीसे भोजन करना चाहिए। और उस दिन कहीं जैन मन्दिर में निवास करना चाहिए जहाँ मलिन काम-काज व विचारोंसे बच सके। हे सुभट, प्रत्येक पर्वके दिन तू इसी प्रकार आचरण कर और हिंसाजनक समस्त काम छोड़ दे। अधम पात्र उसे जानना चाहिए, जो सम्यक दर्शन प्राप्त कर चुका है । उसे जीवदया परायण भी होना चाहिए। मध्यम पात्र वह है जो गृहस्थोंके अणुव्रतोंका पालन करता है । और उत्तम पात्र वह संयमी मुनि कहलाता है जो शम, दम, व्रत और नियमोंका प्रयत्नपूर्वक पालन करता है। इन पात्रोंको दान देनेसे बहुत बड़े पुण्य होते हैं जिनके द्वारा अन्ततः पुरुषोंको पंचकल्याणक प्राप्त होते हैं। सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यका चिन्तन करते रहना चाहिए और यथोक्त क्रियापूर्वक जिनेन्द्रकी वन्दना करनी चाहिए। रोष, तोष और हास्य, इनसे बचना चाहिए तथा अपने मनमें समत्त्वको भावना भाते रहना चाहिए। यह सामायिक विधि कही गयो, जिसे प्रभात, मध्याह्न और सन्ध्या, इन तीनों कालोंमें घरमें प्रतिमाके आगे अथवा जिनालय में उत्तर या पूर्व दिशाकी ओर मुख कर खड़े होकर या बैठकर करना चाहिए । मनमें श्री जिनेन्द्रदेवके मुखका दर्शन, कुगुरु और कुदेवोंसे पराङ्मुख होकर करना चाहिए । अन्तकाल में इन्द्रियोंको जोतकर सल्लेखना विधिसे मरण करना चाहिए। मुनिके इस धर्मोपदेशको सुनकर वह सुभट बोला-कि हमारे कुलमें घात करना तो प्रथम कर्तव्य है। अतएव उस एक बात अर्थात् अहिंसा व्रतको छोड़कर आपके द्वारा उपदिष्ट धर्मको अन्य समस्त बातोंको मैं ग्रहण करता हूँ ॥३१॥ ३२. मुनि द्वारा कुक्कुटोंके पूर्व जन्मका संकेत उस सुभटने कहा-मैं तो इस नगरका कोतवाल हूँ। जब कोई धन-सम्पत्तिको चोरी करता है तब मैं उसे दण्ड भी देता हूँ और मारता भी हूँ। अतएव हे देव, हे मुनिराज, चोरोंके मारनेके सम्बन्धमें मुझसे यह अहिंसाका दुर्धर व्रत नहीं सध सकता। मेरे पिता और पितामहकी क्रमपरम्परासे यही लोगोंको मारनेका मेरा कुलधर्म बंधा चला आ रहा है। अतएव उस व्रतको तो मैं छोड़ता हूँ, किन्तु दूसरा व्रत ले लेता हूँ। सुभटको यह बात सुनकर ऋषिने पुनः कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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