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३. ३०.७]
हिन्दी अनुवाद कहो बाबू, इसे किसने विशेष रूपसे जाना है ? व्यासने समस्त भारतयुद्धको तो देखा, किन्तु अनहोनी बातोंको उन्होंने किस प्रकार लोगोंको बतलाया ? सांख्य बतलाता है कि पृथ्वी किस प्रकारसे स्थापित है तथा वैशेषिक परमाणुओंके गणितको परिभाषा करता है। ग्रहोंकी गति किस प्रकारसे प्रमाणित की गयी? किस प्रकार जाना गया कि आकाशमें चन्द्र या सूर्यग्रहण किस प्रकार पड़ता है ? सर्वज्ञ अतीन्द्रिय ज्ञानमय होता है । जो मतिमूढ़ विश्वास नहीं करता वह पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषयों में आसक्त होता हुआ निन्दाका पात्र है और वह वैतरणो नदीका पानी पीता है ॥२८॥
२९. वेदोंके अपौरुषेय होनेको मान्यताका खण्डन जीवबलि द्वारा यज्ञ करनेवाले करुणाहीन लोग कहते हैं कि वेदोंकी ऋचाओंको जगत् में कभी किसीने नहीं बताया। किन्तु विचार करनेसे प्रतीत होता है कि शब्दोंकी पंक्तियाँ स्वयं आकाशमें मिलकर स्थित नहीं हो सकतीं। वायुमें संघर्षण होनेसे ही शब्द उत्पन्न होता है और इस प्रकार उठकर वह शीघ्र ही आकाशतल में फैल जाता है। ऐसा अनक्षर शब्द मधुर या रूक्ष ( कठोर ) रूपसे पशुओं में भी तथा निर्जीव पदार्थके संघर्षसे ही उत्पन्न होता है, किन्तु मनुष्यके मुखसे वह वर्ण और स्थान तथा संकेत ( अर्थ )मय बुद्धिद्वारा भाषाओंके भेदानुसार निकलता है। ऐसी अवस्थामें यह कहना कि वेद स्वयंभु हैं अर्थात् अपने-आप उत्पन्न हुए हैं, यह लज्जाकी बात है। किन्तु इसी मान्यतापर वेदों, द्विजवरों तथा कविवरोंके कीर्तनसे पूजा की जाती है। देव शरीर धारण करके वेद-पुराणका आख्यान नहीं करता। मूढजन ही ऐसा कह सकते हैं कि पाण्डव देवोंके पुत्र थे। जो नित्य और अखण्ड है उसका अंश नहीं हो सकता, तब फिर अखण्ड विषयोंका अंशावतार मानकर वासूदेव कैसे उत्पन्न हए और वे कैसे कसके शत्र बनाये गये? हिंसासे स्वर्ग और मोक्ष भी मिलता है और पुत्रको प्राप्ति भी होती है। पुराण अन्य है और वेद-आगम कुछ अन्य । देव अन्य हैं और अन्यकी ही पूजा की जाती है। ऐसी अवस्थामें हाय-हाय, किसको छोड़ा जाये और किसको प्रसन्न किया जाये ? ऐसो अवस्थामें कुमारिल भट्टका व्याख्यान भी अति अशुद्ध और धर्मके विपरीत सिद्ध होता है। मैंने तो यह जाना है कि वेद गीतमात्र हैं। उनमें मृगोंका मारना भी प्रकट किया गया है अर्थात् धर्म कहा गया है। इनके द्वारा एकने निर्दय रणसंहारका उपदेश दिया है, तो दूसरेने द्विजकुलका पोषण कराया है ॥२९॥
३०. हिंसाके दोष बताकर मुनि द्वारा सच्चे धर्मका उपदेश यदि कोई मत्स्य-भोजन करता हुआ भी तीर्थजलमें स्नान करके शुद्ध हो सकता है, तो कंकपक्षीको महामुनि मानना चाहिए और नदी तीरपर चलते हुए उसको वन्दना करनी चाहिए । दूसरे मुनिकी क्या आवश्यकता? चाहे मेढ़ी हो और चाहे हरिणी, चाहे गाय हो और चाहे शकरी, ये सब तृण चरनेवाले वनचर भी अपने-अपने पापसे अपनी-अपनी पशुगतिको प्राप्त हुए हैं। किन्तु जिनेन्द्रकी दृष्टि में ये सभी जीव समान हैं। गायको देवी मानकर और उसे देवोंकी कामधेनु समान समझकर उसकी वन्दना करता है और फिर गोमेध यज्ञमें उसका घात भी करता है, और इस प्रकार अपनेको भव-संसारसे पार उतारता है। जो वृषभ-यज्ञको धर्म मानकर उसमें रति करता तथा सौदामिनी यज्ञमें मद्यपानका व्याख्यान करता है, हाय, ऐसे विप्रको प्रसन्न करनेकी चिन्ता नहीं करना चाहिए तथा सच्चे ऋषियों द्वारा उपदिष्ट धर्मको ग्रहण करना चाहिए। अनगार अर्थात् गृहत्यागियोंका धर्म दुर्धर होता है। इसलिए, तू सागार अर्थात्
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