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________________ ३. २६. १७ ] हिन्दी अनुवाद १०१ दिये गये उपदेशसे मैं अपने आत्माको पहचान सकता है। वे इस पर्याय अर्थात् वर्तमान देहिक स्थितिकी दृष्टिसे नित्य नहीं कहे जा सकते। किन्तु द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा वे नित्य ही सुने जाते हैं। जीवको नित्य कहनेवालोंकी दृष्टिसे न वह मरता है, न उत्पन्न होता है, न रमण करता है और न बोलता है। वह तो आकाशके समान निष्क्रिय रूपसे स्थित है। जिनेन्द्र भगवान्ने जीवको जो नाना प्रकारका बतलाया है। किन्त भाट सम्प्रदायमें जो जीवको समग्र रूपसे एक ही कहा गया है, उसमें कुछ विरोध दिखाई देता है। हम स्पष्ट देखते हैं कि जब एक हंसता है, तो कोई दूसरा रोता है; एक जागता है तो अन्य कोई एक सोता है; एक चलता है, तो दूसरा ठहरता है; एक लड़ता है तो दूसरा शंका करते खड़ा रहता है; एक शिष्य है, तो दूसरा मनुष्य गुरु है; एक राजा है, तो दूसरा कोई किंकर है। क्या कोई जासवन ( जासौन या गुड़हल ) के पुष्पके लिए मणि देता है ? रूपी ( मूर्तिमान् जड़ ) पदार्थ द्वारा अरूपो ( अमूर्तिमान् जीव ) जो उससे सर्वथा भिन्न है, वह कैसे भेदा जा सकता है ? खड्ग चाहे जितना तीक्ष्ण हो, उससे आकाशतलको छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। ऐसी विरोधी बातसे तो मुझे हंसी आती है। जो निर्मल है, वह अन्य वस्तुके रागसे कैसे रमण कर सकता है ? भगवान्का भगवान्से विवाद हो ऐसी बात कहते नहीं बनती। भगवान बुद्धका यह बड़ा साहस है, जब वे कहते हैं कि जगत्में व्रत-नियम आदि अनुष्ठान करनेसे हो कोई तपश्चरण सिद्ध नहीं होता। वे अपने पात्र में डाले हुए मांस-रसका भक्षण भी कर लेते हैं तथा पुरुषको भी विज्ञान-स्कन्ध ही मानते हैं ॥२५।। २६. बोद्ध दर्शनका खण्डन, सुभटका भावपरिवर्तन और मुनिका धर्मोपदेश यदि विज्ञान भो त्रैलोक्य स्कन्ध मात्र ही है, तो फिर बौद्धधर्मके अन्तर्गत ही भ्रान्तिके द्वारा भ्रान्तिको कैसे समझा जाये और उसे लोगोंके सम्मुख कैसे सिद्ध किया जाये ? यदि चेतन क्षण-क्षणमें अन्य होता जाता, अर्थात्, बदलता जाता है तब फिर छह मास तक व्याधिकी वेदना कौन सहन करता है ? यदि वासनाके द्वारा ज्ञान प्रकट होता है तो क्या वासना स्वयं क्षणमात्रमें विनष्ट नहीं हो जातो? क्या वह पाँच स्कन्धोंसे भिन्न है ? इन सब विरोधोंका विचार करनेसे जीवकी सिद्धि स्वीकार करनी ही पड़ती है। मुनिके ये वचन सुनकर उस सुभटने अपने सिरपर हाथ चढ़ाकर परमार्थतः मुनिकी वन्दना की और कहा-कामको जोतनेवाले हे भगवन्, मुझे बतालाइए कि मैं आपके किस आदेशका पालन करूँ ? इसपर पूज्य मुनिराजने कहा-तुम्हें धर्म ग्रहण करना चाहिए । धर्मसे ही स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है। धर्मसे मनुष्य हरि ( विष्णु ), हलधर ( बलराम ), चारण (ऋद्धिधारी ) चक्रवर्ती तथा विद्याधर बन जाते हैं। धर्मके द्वारा हो मानव जिनेन्द्र बन जाता है, जिनके चरण-कमलोंपर इन्द्र भी लोटते हैं तथा जिनके अभिषेक जलसे मन्दर पर्वत भी प्रक्षालित हो जाता है। धर्मसे ही वे नरेन्द्र भी हाते हैं, सुरेन्द्र भी और फणीन्द्र भी। धर्मसे ही वे ऐसे गृहस्थ बन जाते हैं कि जो नाना प्रकारके वस्त्र और आभूषण धारण करते हैं तथा उन्हें गृहिणी ऐसी महिलाएं प्राप्त होती हैं जो चन्द्रमुखी, कमलनेत्री, कामसुखदात्री, उज्ज्वल दांतोंवाली हैं, जिनके मुखसे सुगन्धियुक्त वायु निकलती है, जो भवनको भूषित करती हैं, लीलागमनी और मुनिमनदमनी, मृदुभाषिणी हैं, कौतुक उत्पन्न करती हैं, तथा सघनस्तनोंको धारण करती हैं, जैसे मानो वे अप्सराएँ ही हों। धर्मसे ही उन्हें ऐसे पंचखण्डे व सतखण्डे महल रहनेको मिलते हैं, जो रत्नोंकी किरणोंसे चमचमा रहे हैं, जिनके जालीयुक्त गवाक्ष मनोहर हैं, तथा जो अत्यन्त विचित्र चित्रोंको प्रभासे कान्तियुक्त हैं ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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