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________________ ७९ ३. ५.६] हिन्दी अनुवाद मानो त्रैलोक्य फूटा पड़ता था। उन केवटोंने नदोके उस महान् द्रहको नीचे तक खलबला डाला और अपने प्रचण्ड बाहुदण्डोंसे मथ डाला। इतने मनुष्योंके समूह द्वारा संमर्दन किये जानेपर प्रेरित हुए जल से नदीका तट प्लावित हो गया। इस प्रकार जब उन रुष्ट हुए मछुओंका कोलाहल उठ रहा था तभी एक पैने गलसे वह सुंसुमार अपने गले में बिंध गया। उस उछलते, बलखाते व चलते हुए सुंसुमारको उन्होंने गल द्वारा खोंचकर तटपर ला फेंका। उन्होंने उसे राजाको दिखलाया, अग्निमें तपाया, और प्रचण्ड दण्ड देते हुए पकड़ लिया। और मैं जब उस विवरसे निकलकर जल में स्थित था तभी मछली मारनेका कोलाहल करता हुआ चपल नगरवासी धीवरोंका एक समूह वहाँ आ पहुँचा ।।३।। ४. धोवरों द्वारा मेरा पकड़ा जाना, राजाके पास पहुँचाना तथा भद्र द्वारा बलि देने योग्य ठहराया जाना उन धीवरोंने मेरे ऊपर अत्यन्त सघन डोरोंसे संकीर्ण जाल फेंका और फिर हाथों-हाथ पकड़ कर मुझे वे उस महानदीके तटपर ले आये। हे राजन्, मैं उस जालसे उसी प्रकार वेष्टित हो गया जैसे रणमें कोई सुभट शत्रु द्वारा रचे हुए व्यूहसे घिर जाये, अथवा कोशाकृमि तन्तु समूहसे फंस जाये या गृहस्थ कुगृहके काम-काजमें तथा पुत्र व कलत्रके मोह-जंजालमें उलझ जाये अथवा जैसे जीव विशाल मोहमें फंस जाये। जब वे निर्बुद्धि, अभिमानी और ठंठे केवट मुझपर पाद-प्रहार कर रहे थे, तब कंचुकीने उन मछुओंसे कहा-इसे मत मारो, क्योंकि उसके मरनेसे दुर्गन्ध फैलेगी। तब मैं उस धर्महीन मछुओंके बाड़ेमें लाया गया, जहाँ बहुतसे सीपियों और कौड़ियोंके ढेर लगे थे तथा कछवा, मछली और कुलोरोंको हड्डियाँ बिछी हुई थीं। इस प्रकार मैं जलचर होते हुए भी सुखहीन थलचरके दुःखोंको प्राप्त हुआ। वहाँ किसी प्रकार मेरी रात्रि व्यतीत हुई और अन्धकार रूपी हाथीके सिंहके समान सूर्य उदित हुआ। तब उन मछुओंने ले जाकर मुझे उस पृथ्वी मण्डलके चन्द्र नरेन्द्रको दिखलाया, जो पूर्व जन्मका मेरा पुत्र था। मुझे देखकर राजपुरोहित भट्टने मेरे लक्षण बतलाये जैसे कि विप्रोंके आगममें निश्चित रूपसे कहे गये हैं। हे राजन्, यह पाण्डुर रोहित मत्स्य है जो नदीके प्रवाहमें विपरीत तैरता है। इसको पूज्य वेदमें बहुत हव्य-कव्यके योग्य कहा गया है ॥४।। ५. मेरी बलि देकर श्राद्धकी तैयारी मुरारी (विष्णु) ने रोहित मत्स्यका रूप धारण करके जगत्के उद्धारकी भावनासे प्रेरित हो आदर पूर्वक छहों अंगों सहित चारों ही वेदोंको प्रकट किया था। इस प्रकार उन पुरोहितोंने मुझे पवित्र ठहराया और अमृतमतोके भवनमें भिजवा दिया, तथा उनसे हाथ जोड़कर विनती कोहे माता, इस परमार्थकी बातको सुनिए। यह रोहित मत्स्य जाना जाता है और इसके द्वारा पितृवर्गको सन्तुष्ट किया जाता है। बापके नामसे विप्रोंको दिया जाता है। इसकी पूंछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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